जीवाणुभक्षण
जीवाणुभक्षण
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 18 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | हरी बाबू महेश्वरी |
जीवाणुभक्षण मुख्यत: रोगाणु, परजीवी तथा निर्जीव पदार्थों के कणों[१] को शरीर की विशेष कोशिकाओं द्वारा भक्षण करने की क्रिया को कहते हैं। शरीर के रोगाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि सूक्ष्मदर्शी के बिना नहीं देखे जा सकते। ये हानिकारक कीटाणु शरीर के विशेष प्रवेशद्वार जेसे मुख, श्वासनलिका, गुदा, लिंग, चर्म के ब्रणों अथवा सूक्ष्म छिद्रों द्वारा तथा किसी कीट के काटने से शरीर में प्रवेश कर रुधिर एवं लसीका-नलियों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच कर, स्वयं या अपने विष द्वारा, रोग उत्पन्न करते हैं।
ये विशेष कोशिकाएँ जो रोगाणु, परजीवी एवं निर्जीव पदार्थों के कणों का भक्षण करती हैं भक्षीकोशिका कहलाती हैं। ये भक्षीकोशिकाएँ मुख्यत: रुधिर, लसीका की नलियों एवं शरीर के विशेष अंगों में मिलती हैं। रुधिर में ये श्वेताणु (Leucocyte) के नाम से जानी जाती हैं। ये विशेषत: दो प्रकार की होती हैं:
- लघु भक्षीकोशिका परिमाण में 10 से 12 म्यू (m) होती है एवं इसका न्यूक्लियस (neucleus) बहुखंडीय होता है, यह रुधिर तथा लसीका की नलियों में मिलती है।
- बृहत् भक्षीकोशिका परिमाण में 12 से 14 म्यू (m) होती है एवं इसका न्यूक्लियस एक ओर अखंड होता है। यह रुधिर एवं लसीका की नलियों के अतिरिक्त शरीर के अन्य अंगों जैसे तिल्ली, जिगर, अस्थि, फुफ्फुस एवं संयोजक ऊतक (connective tissue) में भी मिलती है और इन स्थानों पर कहीं कहीं जालक-अंत:कला (Reticulo-endothelial) के विशेष नाम से जानी जाती है।
रोग के कीटाणु शरीर में प्रवेश कर अति तीव्र गति से अपनी संख्या वृद्धि करते हैं। इन रोगाणुओं से छुटकारा पाने के उद्देश्य से हमारे शरीर की रक्षा के प्रहरी श्वेताणु इस भयानक आक्रमण का सामना करने को अग्रसर होते हैं। प्रथम बहुखंडीय श्वेताणु रुधिर की नलियों से बाहर जाकर इन रोगाणुओं से टक्कर लेते हैं। वे अपने कोशिकासार (Cytoplasm) द्वारा कूप पाद गति से (चित्र, घ) रोगाणुओं को चारों ओर से घेरकर निगलने का प्रयास करते हैं। रुधिर में एक प्रकार की रोगप्रतिकारक (antibody) प्रोटीन होती है जो रोगाणुओं के शरीर पर लिपट कर श्वेताणु की भक्षण गति को बढ़ा देती है। भक्षीकोशिका एवं जीवाणुओं में संघर्ष चलता रहता है। इसमें यदि भक्षीकोशिकाएँ रोगाणुओं पर विजय पा लेती हैं, तो उनको नष्ट कर डालती हैं और शरीर रोग से शीघ्र मुक्ति पा लेता है। यदि रोगाणुओं की संख्या या उनकी बढ़ने की शक्ति अधिक हुई तो वे भक्षीकोशिका के शरीर में प्रवेश कर अपनी संख्यावृद्धि करना प्रारंभ कर देते हैं, और उसकी भित्ति को तोड़कर बाहर आ जाते हैं तथा दूसरे लघु भक्षीकोशिका पर आक्रमण कर उनको भी उसी भाँति नष्ट करना आरंभ कर देते हैं। कुछ घंटों के पश्चात् बृहत् श्वेत भक्षीकोशिकाएँ रुधिर एवं पास के अन्य अंगों से बाहर आकर उस स्थान पर उत्पत्तिकारी रोगाणुओं पर आक्रमण करती हैं।
ये कोशिकाएँ बहुत ही प्रवीणता से युद्ध करती हैं; क्योंकि इनकी-जीवाणु भक्षणशक्ति लघु कोशिकाओं से अधिक होती है, इसलिये ये जीवित एवं मरे हुए रोगाणुओं का भक्षण तो करती हैं; इसके साथ साथ अपंग लघु कोशिकाओं को रोगाणुओं के सहित निगल जाती हैं।
यदि रोगाणु और अधिक प्रभावशाली हुए तो कई अखंडीय कोशिकाओं के न्यूक्लियस मिलकर एक महाकोशिका का निर्माण करते हैं, जिसकी भक्षणशक्ति अपार होती है। यह रोगाणुओं को अपने शरीर में लेकर उनको पाचन-क्रिया द्वारा पचा लेती हैं। यदि शरीर की प्रतिरक्षा शक्ति कम हुई तो ये रोगाणु स्वयं या भक्षीकोशिका के अंदर रहकर रुधिर एवं लसीका वाहिनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में चले जाते हैं, और भिन्न भिन्न अंगों में विकार पैदा करना आरंभ कर देते हैं। यहाँ पर स्थायी बृहत् भक्षीकोशिका जीवाणु भक्षण क्रिया से इन रोगाणुओं को अपने अंदर लेकर इनको नष्ट करने का उपक्रम करती हैं। रोगाणुओं के अतिरिक्त जो भी निर्जीव पदार्थ जैसे धूल, कोयला आदि जो विशेषत: फुफ्फुस की हवा की नलियों द्वारा शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, उनको ये भक्षण कर शरीर को हानिकारक प्रभाव से बचाती हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धूल, कोयला आदि