जीवाणु युद्ध

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लेख सूचना
जीवाणु युद्ध
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 18-19
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक फूलदेवसहाय वर्मा

जीवाणु युद्ध में शत्रुओं को मार डालने या उन्हें निकम्मा बना देने के लिये या ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देने के लिये कि वे युद्ध करने में असमर्थ हो जाएँ, जीवाणुओं तथा इसी प्रकार के अन्य साधनों का उपयोग होता है। जीवाणु युद्ध में मकानों या मशीनों को क्षति नहीं पहुँचती। इसका प्रभाव केवल मनुष्यों, उनके खाद्य पदार्थों और अन्य युद्ध साधनों पर पड़ता है। युद्ध और रोगों का संबंध नया नहीं है। इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जिनमें बड़े बड़े युद्धों के बाद कोई न कोई रोग महामारी के रूप में फैला हुआ पाया गया है। शत्रुओं को क्षति पहुँचाकर उनपर विजय पाने के लिये रोगाणुओं का उपयोग भी नया नहीं है। इतिहास में अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनसे पता लगता है कि युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये रोग फैलाने के प्रयास हुए हैं। चेचक और हैंजे से मरे व्यक्तियों के शवों को पेय जल के जलाशयों में डालकर पानी को विषैला बनाने के उल्लेख मिलते हैं। आधुनिक काल में प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी ने घोड़ों को ग्लैंडर्स रोग से आक्रांत कराकर उन्हें युद्ध में भेजने में बाधा डालने का प्रयास किया था।

जीवाणु युद्ध में प्रयुक्त होनेवाले साधनों में कुछ विशेषताएँ होनी चाहिए। उनमें संक्रमण-क्षमता ऊंची, उष्मा, धूप और शोषण के प्रति प्रतिरोध ऊँचा, जल्द फैलने तथा मार डालने या निकम्मा बना देने की क्षमता ऊँची होनी चाहिए। ऐसा भी होना चाहिये कि उनके प्रति शत्रुओं में प्राकृतिक प्रतिरक्षण न उत्पन्न हुआ हो।

जीवाणु युद्ध में रोगाणु का चुनाव इस बात पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग के उद्देश्य क्या हैं। यदि शत्रुओं को मार डालने का उद्देश्य है तो प्लेग, टाइफाइड, हैजा, चेचक या इसी प्रकार के अन्य रोगों के जीवाणुओं का प्रयोग किया जा सकता है। इन्हें व्यक्तिगत संपर्क, वायु आहार, दूध या पानी द्वारा फैलाया जा सकता है। रोग उन पशुओं में भी फैलाया जा सकता है, जिनका मांस खाया जाता अथवा जिनका ऊन वस्त्रों के निर्माण में प्रयुक्त होता है। ऐसे पशुओं में भेड़, बकरी, सुअर और मुर्गे विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनसे शत्रुओं को क्षति पहुँचाई जा सकती है। फसलों को नष्ट कर अर्थात्‌ खाद्यान्न की कमी करके भी क्षति पहुँचाई जा सकती है।

जीवाणु युद्ध में जो साधन प्रयुक्त होते हैं उन्हें दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: एक वे जीवित पदार्थ जो मनुष्यों, पशुओं या पौधों में रोग उत्पन्न करते हैं। ये रोगाणु, पौधा नाशक कीड़े, बैक्टीरिया, विषाणु (Virus), कवक और रिकेटसियाइ (Rickettsiae) होते हैं। दूसरी श्रेणी में कुछ विशेष प्रकार के 'हारमोन' या 'वृद्धिनियंत्रक' आते हैं, जो सामान्यत: घासपात को नष्ट करते हैं।

रोगाक्रांत व्यक्तियों द्वारा अथवा रोगवाहक कीड़ों के संपर्क से रोग फैलाए जा सकते हैं। वायु द्वारा सांस लेकर, या चमड़े अथवा श्लैष्मिक झिल्ली द्वारा अवशेषित होकर अथवा रोगाणुयुक्त आहार करने से भी रोग फैलते हैं। रोगाणुओं को वायुयान या गुब्बारों द्वारा वायु में फैलाकर वायु को दूषित बनाया और रोग फैलाया जा सकता है। खाद्य-पशुओं, विशेषकर सुअर, कुक्कुट, भेड़ आदि को रोगी बनाकर पशुओं में रोग फैलाए जा सकते हैं। अन्न या फलवाली फसलों में पौधों के प्लेग, चित्ती, मारी आदि रोग फैलाकर भी क्षति पहुँचाई जा सकती है।

जीवाणु युद्ध में संरक्षण का सर्वोत्कृष्ट उपाय सैनिकों को सचेत और सजग रखना है। उनका स्वास्थ्य भी सर्वदा उत्तम बना रहना चाहिए। कृषि-व्यवस्था सुव्यवस्थित रहनी चाहिए। संरक्षण के लिये यह नितांत आवश्यक है कि शत्रुपक्ष द्वारा फैलाए गए जीवाणुओं का पता जल्द से जल्द लग जाय। इसके लिये प्रयोगशाला होनी चाहिए जिसमें उनकी जाँच जल्द से जल्द कर ली जाय। पता लग जाने पर परिरक्षण (immunixation) और संगरोधन (quarantine) की व्यवस्था तत्काल करनी चाहिए।

यद्यपि रोग जल्द फैलते हैं, पर महामारी के रूप में उनका फैलना धीरे धीरे ही होता है। यदि उन्हें रोकने के लिये समय पर व्यवस्था कर ली जाय तो महामारी का फैलना निश्चित रूप से रोका जा सकता है।

जीवाणु युद्ध में यांत्रिक सरंक्षण प्राय: उसी प्रकार के होते हैं जैसे रासायनिक युद्ध में होते हैं। गैसत्राण द्वारा वायु की सफाई की जा सकती है और वायुरोधक वस्त्रों के व्यवहार से दूषित वायु को शरीर के संपर्क में आने से रोका जा सकता है।