जू-जुत्सु

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लेख सूचना
जू-जुत्सु
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 29
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक इकबाल अहमद

जैसे भारत में कुश्ती और यूरोप में मुक्के बाजी की प्रथा है वैसे ही जापान में जू-जुत्सु की प्रथा है। जू जुत्सु जानने वाले को अपने बचाव के लिये किसी हथियार की आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि वह निहत्था अपने से कहीं अधिक शक्तिशाली आदमी को बेबस कर सकता है और उसके सामने चाकू और तलवार भी काम नहीं देते।

जू-जुत्सु में कुशलता प्राप्त करने के लिये वर्षों परिश्रम करना पड़ता है। सीखने वालों को आदमी की शारीरिक बनावट खूब अच्छी तरह समझाई जाती है, उसे विशेषतया बताया जाता है कि आदमी की तंत्रिकाएँ (nerves) किस किस जगह सबसे अधिक अरक्षित होती है जहाँ चोट लगने से बिजली का सा धक्का लगता है और कुछ देर के लिये आदमी शक्तिहीन हो जाता है; जैसे केहुनी के पीछे की नस या पेट के ऊपरी भाग 'सौर चक्र' (solar plexus) चोट लगने से कुछ समय के लिये साँस बंद हो जाती है और मनुष्य किसी काम का नहीं रह जाता। यह भी बताया जाता है कि कौन जोड़ कमजोर है या हाथ और पैर को कैसे मोड़ा जाय कि वे उतर जायँ या टूट जायँ। जू-जुत्सू जानने वाला कभी हमला करने वाले के झोंक को नहीं रोकता बल्कि उसको आने देता है और अचानक आक्रमणकारी को ऐसे मोड़ देता है कि उसकी शक्ति उसी के विरुद्ध चली जाती है। अपने ऊपर झपटने वाले को वह रोकेगा नहीं, बल्कि उसको और धक्का देकर ऐसा टेढ़ा गिराएगा कि उसका हाथ उतर जाय या गरदन में मोच आ जाय।

जू-जुत्सु लड़ने वाले हाथ खुला रखते हैं। उनके हाथ के नीचे का भाग लोहे की तरह कठोर होता है। यह अगर कंठमणि (Adam's apple) पर लग जाय तो आदमी बेहोश हो जाता है और कलाई पर लग जाय तो कलाई उतर जाती है।

जू-जुत्सु पहले चीन में शुरू हुआ। लामा भिक्षुओं ने अपने बचाव के लिये इसका आष्विकार किया। चीन से यह कला जापान पहुँची और वहाँ बहुत ही लोकप्रिय हुई। प्रारंभ में यह गुप्तकला रही और केवल उच्च घराने वाले ही इसे जानते थे। आज कल जापान में जू-जुत्सु गुप्त कला नहीं है। जापानी स्कूलों और व्यायाम शालाओं में अब इसकी शिक्षा सर्वसाधारण को दी जाती है। 20वीं सदी में यह कला यूरोप एवं अमरीका पहुँची जहाँ इसे बहुत पसंद किया गया और इसके प्रशिक्षण के केंद्र खोले गए।

प्रशिक्षण अथवा अभ्यास की लड़ाई में हाथ पैर टूटने का अवसर नहीं आता। जब लड़नेवाला अनुभव करता है कि वह फँस गया और अधिक शक्ति लगाने से हाथ पैर टूटने का भय है, तो वह पृथ्वी पर हाथ या पैर मारता है, जिसका अर्थ होता है कि वह हार गया। अत: लड़ाई समाप्त कर दी जाती है।