ज्ञानदेव

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
ज्ञानदेव
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 67-68
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शं. ग. तुलपुले

ज्ञानदेव या ज्ञानेश्वर जन्म शके ११९७ (सन्‌ १२७५) में गोदावरी नदी के किनारे बसे आपे ग्राम में हुआ था। इनके पिता विट्ठलपंत उच्च कोटि के मुमुक्षु तथा भगवान्‌ विट्ठलनाथ के अनन्य उपासक थे। विवाह के उपरांत उन्होंने संन्यासदीक्षा ग्रहण की थी, किंतु उन्हें अपने गुरुदेव की आज्ञा से फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ा। इस अवस्था में उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान नामक तीन पुत्र एवं मुक्ताबाई नाम की एक कन्या हुई। संन्यास-दीक्षा-ग्रहण के उपरांत इन पुत्रों का जन्म होने के कारण इन्हें संन्यासी की संतान यह अपमानजनक संबोधन निरंतर सहना पड़ता था। विट्ठलपंत को तो उस समय के ब्राह्मण समाज द्वारा दी गई आज्ञा के अनुसार देहत्याग ही करना पड़ा। पिता की छत्रछाया से वंचित से अनाथ भाई बहन जनापवाद के कठोर आद्यात सहते हुए शुद्धिपत्र की प्राप्ति के लिये उस समय के सुप्रसिद्ध धर्मक्षेत्र पैठन में आ पहुँचे। ज्ञानदेव ने यहाँ ब्राह्मणों के समक्ष भैंसे के मुख से वेदोच्चारण कराया। इनके इस अलौकिक चमत्कार से प्रभावित हो पैठन (पैठण) के प्रमुख विद्वानों ने ज्ञानदेवादि चारों को शके १२०९ (सन्‌ १२८७) में शुद्धिपत्र प्रदान कर दिया। उक्त शुद्धिपत्र को लेकर ये चारों प्रवरा नदी के किनारे बसे नेवासे ग्राम में पहुँचे। ज्ञानदेव के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ के नाथ संप्रदाय के गहनीनाथ से उपदेश मिला था। इन्होंने उस आध्यात्मिक धरोहर को ज्ञानदेव के द्वारा अपनी छोटी बहन मुक्ताबाई तक बराबर पहुँचा दिया। इस प्रकार परमार्थमार्ग में कृतार्थ एवं सामाजिक दृष्टि से पुनीत ज्ञानदेव ने आवालवृद्धों को अध्यात्म विद्या का सरल परिचय प्राप्त कराने के उद्देश्य से श्रीमद्भगवद्गीता पर मराठी टीका लिखी। इसी का नाम है भावार्थदीपिका अथवा ज्ञानेश्वेरी। इस ग्रंथ की पूर्णता शके १२१२ नेवासे गाँव के महालय देवी के मंदिर में हुई।

इस ग्रंथ की समाप्ति के उपरांत ज्ञानेश्वर ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों की स्वतंत्र विवेचना करनेवाले 'अमृतानुभव' नामक दूसरे ग्रंथ का निर्माण किया। इस ग्रंथ के पूर्ण होने के बाद ये चारों भाई बहन आलंदी नामक स्थान पर आ पहुँचे। यहाँ से इन्होंने योगिराज चांगदेव को ६५ ओवियों (पदों) में जो पत्र लिखा वह महाराष्ट्र में 'चांगदेव पासष्ठी' नाम से विख्यात है। ज्ञानदेव जब तीर्थयात्रा के उद्देश्य से आलंदी से चले उस समय इनके साथ इनके भाई, बहन, दादी, तथा विसोवा खेचर, गोरा कुम्हार आदि अनेक समकालीन संत थे। विशेषतया नामदेव तथा ज्ञानदेव के आपसी संबंध इतने अधिक स्नेहपूर्ण थे कि ऐसा लगता था मानो इस तीर्थयात्रा के बहाने ज्ञान और कर्म साकार रूप धारण कर एकरूप हो गए हों। तीर्थयात्रा से लौटते हुए ज्ञानदेव पंढरपुर मार्ग से आलंदी आ पहुँचे। विद्वानों का अनुमान हैं कि ज्ञानदेव ने इसी काल में अपने 'अभंगों' की रचना की होगी।

आबालवृद्धों को भक्तिमार्ग का परिचय कराकर भागवत धर्म की पुन:स्थापना करने बाद ज्ञानदेव ने आलंदी ग्राम में जीवित समाधि लेने का निश्चय किया।

ज्ञानदेव के समाधिग्रहण का वृत्तांत संत नामदेव ने अत्यंत हृदयस्पर्शों शब्दों में लिखा है। अपने गुरु निवृत्तिनाथ को अंतिम वंदन कर ज्ञानदेव स्थितप्रज्ञ के समान समाधिमंदिर में जा बैठे। तदुपरांत स्वयं निवृत्तिनाथ ने समाधिमंदिर की द्वारशिला बंद कर दी। ज्ञानदेव जी ने यह जीवित समाधि आलंदी में शके १२१७ (सन्‌ १२९६) की कार्तिक वदी (कृष्ण) १३ को ली। उस समय इनकी अवस्था केवल २१ वर्ष की थी।

ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, चांगदेव पासष्ठी तथा अभंग इतनी ही ज्ञानेश्वर जी की कृतियाँ सर्वमान्य हैं। कुछ वर्ष पूर्व यह सिद्धांत उपस्थित किया गया था कि ज्ञानेश्वरी के लेखक तथा अभंग के रचयिता, एक ही नाम के दो भिन्न व्यक्ति हैं। किंतु अब अनेक पुष्ट अंतरंग आधारों से इस सिद्धांत का खंडन होकर यह सर्वमान्य हो चुका है कि ज्ञानेश्वरी एक ही व्यक्ति हैं।

अपने अभंगों में ज्ञानेश्वर ने तत्वचर्चा की गहराइयों को न नापते हुए अधिकार वाणी से साधारण जनता को आचारधर्म की शिक्षा दी है। फल यह हुआ कि बालकों से वृद्धों तक के मन पर यह अभंगवाणी पूर्ण रूप से प्रतिबिंबित हुई। गुरुकृपा, नामस्मरण और सत्संग ये परमार्थपथ की तीन सीढ़ियाँ हैं, जिनका दिग्दर्शन ज्ञानेश्वर ने कराया है। ज्ञानदेव जैस श्रेष्ठ संत थे वैसे ही वे श्रेष्ठ कवि भी थे। उनकी आध्यात्मिक साधना काव्यरस से आप्लावित है, उनकी कविता का दर्शन की गुरुता मिली है। यह सत्य है कि ज्ञानेश्वर की अभंगवाणी 'आप बीती' का वर्णन करनेवाली होने के कारण उसमें स्थान स्थान पर रस के स्वच्छ स्रोत प्रवाहत हे रहे हैं, तथापि उनके काव्यवैभव की पूर्णता और परिसीमा ज्ञानेश्वरी मे ही हुई है। काव्य के दोनों अंगों, रस और अलंकार का, ज्ञानेश्वरी में सुंदर परिपोष हुआ है।

तत्वविचार तथा काव्यसौंदर्य के समान ही महाराष्ट्र के पारमार्थिक जीवन में भी ज्ञानेश्वर ने जो कार्य किए वे सभी क्रांतिकारी ढंग के हैं। उन दिनों कर्मकांड का बोलबाला था, समाज का नेतृत्व करनेवाली पंडितों की परंपरा प्रभावहीन हो चुकी थी। ऐसी अवस्था में अध्यात्मज्ञान की महत्ता स्थापित करते हुए सर्वसाधारण मानव के आकलन योग्य भक्तिमार्ग का प्रतिपादन ज्ञानदेव ने किया। पंडितों के ग्रंथों में बद्ध रहनेवाला अध्यात्म दर्शन शूद्रादिकों के लिये भी सहज सुलभ हो, इसे ध्यान में रखते हुए ज्ञानेश्वरी की रचना की गई है। नीच योनि में जन्म लेने के कारण मनुष्य को कितना ही निम्न क्यों न माना जाता हो, परंतु ईश्वर के यहाँ सभी को समान आश्रय मिलता है, इस सिद्धांत को दृढ़मूल करने का सारा श्रेय ज्ञानेश्वर को है। महाराष्ट्र में इनके ज्ञानेश्वरी ग्रंथ को 'माउली' या माता कहा जाता है। दूसरे उपदेश एवं आश्वासन के कारण उस समय महाराष्ट्र की सभी जातियों में भगवद्भक्तों की एक पीढ़ी ही निर्मित हो गई और वे सभी भावुक नरनारी अपनी अपनी भाषा में पंढरपुर के भगवान पांडुरंग या विट्ठल की महिमा गाने लगे। भगवान्‌ केवल कठोर न्यायाधीश ही नहीं, अपितु सहजवत्सल पिता भी हैं। उनकी दृष्टि में माता की करुणा है। यह बात संपूर्ण महाराष्ट्र में ज्ञानेश्वर ने अपनी सधा-मधुर-भाषा में बतलाई। इसी कारण इस ओ यहाँ पुन: एक बार भागवत धर्म की स्थापना हुई तथा इस संप्रदाय के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में ज्ञानेश्वरी भी सर्वबंध हुई। इसी के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त कर अनेक भागवत कवियों ने मराटी भाषा मे ग्रंथरचना की और एक समृद्ध परंपरा का निर्माण किया। इसीलिये ज्ञानदेव महाराष्ट्र संस्कृति के आद्य प्रवर्तक माने जाने लगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ