ज्ञानेश्वरी
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ज्ञानेश्वरी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 70 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | शं. ग. तुलपुले |
ज्ञानेश्वरी मराठी भाषा में भगवद्गीता पर लिखी गई सर्वप्रथम ओवीबद्ध टीका है। वस्तुत: यह काव्यमय प्रवचन है जिसे ज्ञानेश्वर ने अपने गुरु निवृत्तिनाथ के निदर्शन में अन्य संतों के समक्ष किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है। यह भाष्य अथवा टीका ज्ञानेश्वर जी की स्वतंत्र बुद्धि की देन है। मूल गीता की अध्यायसंगति और श्लोकसंगति के विषय में भी कवि की स्वयंप्रज्ञा अनेक स्थलों पर प्रकट हुई है। प्रारंभिक अध्यायों की टीका संक्षिप्त है परंतु क्रमश: ज्ञानेश्वर जी की प्रतिभा प्रस्फुटित होती गई है। गुरुभक्ति, श्रोताओं की प्रार्थना, मराठी भाषा का अभिमान, गीता का स्तवन, श्रीकृष्ण और अर्जुन का अकृत्रिम स्नेह इत्यादि विषयों ने ज्ञानेश्वर को विशेष रूप से मुग्ध कर लिया है। इनका विवेचन करते समय ज्ञानेश्वर की वाणी वस्तुत: अक्षर साहित्य के अलंकारों से मंडित हो गई है। यह सत्य है कि आज तक भगवद्गीता पर साधिकार वाणी से कई काव्यग्रंथ लिखे गए। अपने कतिपय गुणों के कारण उनके निर्माता अपने अपने स्थानों पर श्रेष्ठ ही हैं तथापित डॉo राo दo रानडे के समुचित शब्दों में यह कहना ही होगा कि विद्वत्ता, कविता और साधुता इन तीन दृष्टियों से गीता की सभी टीकाओं में 'ज्ञानेश्वरी' का स्थान सर्वश्रेष्ठ है।
ज्ञानेश्वर ने अपनी टीका शंकराचार्य के गीताभाष्य के आधार पर लिखी है। ज्ञानदेव के स्वयं नाथ संप्रदाय में दीक्षित हाने के कारण उनके इस ग्रंथ में उक्त संप्रदाय के यत्र तत्र संकेत मिलते हैं। गीता-भाष्य में वर्णित ज्ञान एवं भक्ति के समन्वय के साथ नाथ संप्रदाय के योग, स्वानुभव इत्यादि बातों का ज्ञानदेव के विवेचन में समावेश हुआ है। इन्होंने इन मूल सिद्धांतों को भागवत संप्रदाय की सुदृढ़ पीठिका पर प्रतिष्ठित किया है। ज्ञानेश्वरी भक्ति-रस-प्रधान ग्रंथ है। ईश्वर-प्राप्ति का एकमेव साधन भक्ति ही है, यह इसका महासिद्धांत है। ज्ञानदेव की भक्ति, पूजन अर्चना, ्व्रात तथा नियमादि से बाह्य स्वरूप की नहीं अपितु नामस्मरणदि साधनोंवाली अंतरस्वरूप की थी। नाथपंथ का योगमार्ग जन साधारण के लिये सहज साध्य न होने के कारण ज्ञानेश्वर ने उसे भक्ति का अधिष्ठान देकर ईश्वरभक्ति रूपी नेत्रों से युक्त कर दिया।
भारतीय दर्शन की विचारपरंपरा से ज्ञानदेव द्वारा प्रतिपादित स्फूर्तिवाद को महत्व का स्थान देना होगा, ज्ञानेश्वरी में स्फुरणरूप से अथवा बीजरूप से व्यक्त होनेवाला स्फूर्तिवाद ज्ञानेश्वर द्वारा उनके अमृतानुभव नामक एक छोटे ग्रंथ में विशद रूप से प्रतिपादित है। इस ग्रंथ के सातवें अध्याय में ज्ञानदेव ने 'विश्व का ही नाम चिद्विलास है' यह सिद्धांत तर्क शुद्ध पद्धति से प्रतिपादित किया है।
ज्ञानेश्वरी के अलंकारपक्ष का अवलोकन करने पर कवि के प्रतिभासंपन्न हृदय के दर्शन होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उपमा और रूपक के माध्यम से ही बोल रहे हों। उनकी इस रचना में मालोपमा और सांगरूपक मुक्तहस्त से बिखेरे गए हैं। विशेषता यह है कि ये सारी उपमाएँ और रूपक गीताटीका से तादात्म्य पा गए हैं। मायानदी, गुरुपूजा, पुरुष, प्रकृति, चित्सूर्य आदि उनके मराठी साहित्य में ही नहीं अपितु विश्ववाङॅमय में अलौकिक माने जा सकते हैं। ये ही वे रूपक हैं जिनमें काव्य और दर्शन की धाराएँ घुल मिल गई हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ