झाड़ फूँक या तंत्रोपचार
झाड़ फूँक या तंत्रोपचार
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 102 |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | लालजीराम शुक्ल |
झाड़ फूँक या तंत्रोपचार कुछ ऐसी क्रियाओं, चेष्टाओं और व्यवहारों का नाम है जो बहुत प्राचीन समय से मनुष्य अपने दु:ख निवारण के लिए करता आया है। इन क्रियाओं और चेष्टाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से कारण और कार्य परस्पर संबद्ध, अर्थात् अन्योन्याश्रित, होने चाहिए। जब कारण छोटा सा हो और उसका कार्य बहुत व्यापक हो तब वैज्ञानिक विधि से वह नहीं समझाया जा सकता। किसी भी घटना के संपूर्ण कारणों को जानने पर ही विज्ञान सम्मत कार्य स्थिर हो सकता है। तंत्र में कार्य एक प्रकार के होते हैं और कारण दूसरे ही प्रकार के। तंत्र में जो कुछ किया जाता है, उसका संपूर्ण और बुद्धिग्राह्य अर्थ कोई भी व्यक्ति नहीं जानता यदि तंत्र को पूर्णरूपेण कोई व्यक्ति समझाए तो उसकी प्रभावकारिता ही समाप्त हो जाती है।
तंत्र अवैज्ञानिक भले ही हो, किंतु विज्ञान से अधिक प्राचीन है। जब मनुष्य को कष्ट होता है तब उसके निवारण के लिये वह कोई न कोई उपाय खोजता है। आज जिन बातों के लिये आधुनिक मानव विज्ञान का सहारा लेता है, उन बातों के लिए प्राचीन मानव मंत्र तंत्र का सहारा लेता था। किसी रोग के कारण के लिए वैज्ञानिक विधियों के एवं औषधियों के पूर्व मंत्र तंत्र ही काम में लाए जाते थे। यदि किसी व्यक्ति के सिर में पीड़ा हुई तो उसे आधुनिक चिकित्सक ऐनासिन की गोली देते हैं, पर प्राचीन मानव झाड़कूँक का सहारा लेता था। उन्माद उत्पन्न होने पर हम अब इंसुलिन इंजेक्शन लगवाते अथवा मानसिक उपचार कराते हैं, पर प्राचीन काल में इसे भूतबाधा माना जाता था और झाड़ फूँक की जाती थी। इसी प्रकार साँप, बिच्छू आदि के काटने पर प्राचीन काल में मनुष्य किसी विशेष प्रकार के शल्य कर्म एवं इंजेक्शन का सहारा न लेकर मंत्रों का सहारा लेता था। जहाँ सभ्यता का विकास पर्याप्त नहीं हुआ है, वहाँ तंत्रोपचार अब भी मनुष्य के अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों के निवारण का साधन बना हुआ है।
प्राचीन यूनान में कोई कार्य करने के पूर्व लोग डेल्फी की देवी के यहाँ आशीर्वाद के लिए जाते थे। इसी तरह रोगों के निवारण के लिए भी उसके आशीर्वाद की अपेक्षा रहती थी। डेल्फी का पुजारी एक विलक्षण प्रकार की भाषा में आनेवाले व्यक्तियों को निर्देश देता था, जिसके अनुसार चलने से उनको सफलता मिलती थी। यह भाषा सर्वथा स्पष्ट नहीं होती थी और भिन्न भिन्न व्यक्ति अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार उसका अर्थ लगाते थे। इस तरह वे अपनी अंत:प्रेरणा से पुजारी की कही हुई बात का अपने से संबंध जोड़ लेते थे और उनकी सफलता प्राय: उनकी अंत:प्रेरणा का परिणाम होती थी।
भारत में भी बहुत प्राचीन काल से रोगों का तंत्रोपचार होता आया है। तंत्रोपचार भले ही फूहड़ क्रिया माना जाए पर यह देहात के लोगों में अब भी काफी प्रचलित है और बहुत से लोगों को इससे लाभ भी होता है। तंत्रोपचार अब अनेक प्रकार के मानसिक रोगों के लिए विशेष प्रकार से उपयोगी सिद्ध हुआ है। हिस्टीरिया जैसे मानसिक रोग में इसक उपयोग अब भी भारत तथा पाश्चात्य सभ्य देशों में होता है।
तंत्रोपचार को हम आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में निर्देशात्मक चिकित्सा विधि (Suggestion Therapy) कह सकते हैं। निर्देशात्मक चिकित्सा विधि तभी तक सफल होती है, जब तक रोगी की तार्किक शक्ति जाग्रत नहीं होती। जब रोगी चिकित्सक की बातों पर तर्कवितर्क करने लगता है, तब इस चिकित्सा का प्रभाव समाप्त हो जाता है। अपनी जाग्रत अवस्था में सामान्यत: कोई व्यक्ति किसी भी बात के प्रति तर्कहीन नहीं होता। बच्चों में तार्किक शक्ति कम होती है, अतएव मंत्रतंत्र उनपर अधिक लग सकते हैं। परन्तु बच्चों को मानसिक रोग अधिक नहीं होते। मानसिक रोग प्रौढ़ व्यक्तियों को होते हैं। प्रौढ़ व्यक्तियों में पढ़े लिखे लोगों की अपेक्षा अपढ़ में और पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में तर्कशक्ति कम रहती है। वे हर एक बात को संदेह की दृष्टि से नहीं देखतीं। अतएव जितना लाभ स्त्रियों को तंत्रोपचार से होता है, उतना दूसरों को नहीं होता।
तंत्र चिकित्सा विधि को प्रभावकारी और सफल बनाने का एक उपाय मनुष्य को सुला देना है, अथवा आधी तर्कशक्ति को लुप्त कर देना है। यह सम्मोहन के द्वारा किया जाता है। सम्मोहित अवस्था में मनुष्य या तो सो ही जाता है, अथवा यदि वह जाग्रत रहता है तो उसका चिंतन सम्मोह के निर्देशानुसार चलता है। बेलजियम के मेस्मर महोदय ने रोगियों के उपचार के लिए इस विधि का प्रयोग किया। मानसिक रोगों के उपचार में इसी विधि का प्रयोग दो सौ वर्षों तक होता रहा। फ्रांस के इसमील कुए नामक मानसिक चिकित्सक सम्मोहन और निर्देशन विधि से, न केवल मानसिक वरन् शारीरिक रोगों का भी, उपचार करते थे।
डा. फ्रायड ने पहले तो इस विधि को सीखा। उन्होंने देखा कि यह विधि न तो वैज्ञानिक है और न इससे रोगियों का स्थायी लाभ होता है। उनके कथनानुसार निर्देशन और सम्मोहन विधि के द्वारा चिकित्सा किए गए रोग का केवल दमन होता है, वह निर्मूल नहीं होता। इतना ही नहीं, यदि किसी व्यक्ति को बारंबार सम्मोहित किया जाए, अथवा उसे अधिक देर तक किसी दूसरे व्यक्ति के विचारों के प्रभाव में रहना पड़े, तो उसकी इच्छाशक्ति दुर्बल हो जाती है और इसके दुर्बल होने पर मानसिक रोग की संभावना बढ़ जाती है। आधुनिक काल में भी कुछ विद्वानों ने निर्देश-चिकित्सा-विधि की उपयोगिता मानी है, परंतु वे यह भी मानते हैं कि जब तक परनिर्देश आत्मनिर्देश नहीं बन जाता रोगी को उससे स्थायी लाभ नहीं होता। तंत्रोपचार के अनेक रूप हैं, जैसे कोई मंत्र हुहराते रहना, ताबीज बाँधना, विशेष जगह पर दीपक जलाना, जल चढ़ाना, अथवा स्वयं को झड़वाना फुँकवाना। परंतु इससे जो भी भलाई होती है, इसका एकमात्र मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि रोगी के ध्वंसात्मक विचारों को बदल दिया जाता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार निराशावादी हो गए हैं, तो इसका कारण चाहे जो कुछ भी हो उससे अनिवार्य रूप से दुर्घटनाएँ होंगी, शारीरिक अथवा मानसिक रोग होंगे और समाज में वह शत्रुओं से स्वयं को घिरा देखेगा। यदि उसके विचार रचनात्मक हो गए हैं, तो इसे अनुकूल परिस्थिति मिलेगी। मनुष्य के विचार ध्वंसात्मक से रचनात्मक, प्रेम अथवा मैत्री भावना के द्वारा, किए जा सकते हैं। जहाँ तक तंत्रों पचार मैत्री भावना का वाहक है, वह सफल होता है अन्यथा वह कोरा ढोंग बन जाता है।
डा. चार्ल्स युंग ने तंत्रोपचार की वैज्ञानिकता सिद्ध करने की चेष्टा की है। उनके कथनानुसार तंत्र की क्रियाएँ, जैसे क्रास का बनाना, उसमें बनाए गए चित्र, जैसे चौक पूरना, मनुष्य के अचेतन मन के लिये विशेष अर्थ रखते हैं। इनके द्वारा मनुष्य के आंतरिक मन को जितनी सफलता से प्रभावित किया जा सकता है, उतना साधारण बातचीत से नहीं किया जा सकता। रोगी के आंतरिक मन को प्रभावित कर के ही हम उसे स्थायी लाभ पहुँचा सकते हैं। तंत्र की भाषा सार्थक शब्दों की भाषा नहीं है। उसकी भाषा चेतन मन के लिए अर्थहीन होगी, परंतु मनुष्य के अचेतन मन के लिए वह भारी अर्थ रखती है। जब तक हम अचेतन मन की भाषा के द्वारा ही मनुष्य से संपर्क स्थापित नहीं करते, तब तक हम उसे प्रभावित नहीं कर सकते; और जब तक अचेतन मन को प्रभावित न किया जाए तब तक किसी व्यक्ति को ऐसे रोगों से मुक्त नहीं कर सकते जिसकी जड़ उसके अचेतन मन में है। इस दृष्टि से बहुत सी तंत्रीय निरर्थक बातें सार्थक सिद्ध हो जाती हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ