डा. सर मुहम्मद इकबाल

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
डा. सर मुहम्मद इकबाल
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 504
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सैयद एतेहशाम हुसेन

इकबाल, डाक्टर सर मुहम्मद इकबाल (1876-1938 ई.) के पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे जिन्होंने सियालकोट में बसकर कुछ पीढ़ी पूर्व इस्लाम धर्म स्वीकार कर दिया था। इकबाल के पिता फारसी और अरबी जानते थे और सूफी विचारों से प्रभावित थे। इकबाल ने पहले सियालकोट में शिक्षा प्राप्त की और वहाँ के मौलवी सैयद मीर हसन से बहुत प्रभावित हुए। उसी समय से कविताएँ लिखना आरंभ कर दिया था और दिल्ली के प्रसिद्ध कवि नवाब मिर्जा दाग़्ा को अपनी कविताएँ दिखाते थे। जब उच्च शिक्षा के लिए लाहौर पहुँचे तो यहाँ कविसम्मेलनों में आने जाने लगे। गवर्नमेंट कालेज, लाहौर में उस समय टामस आर्नल्ड दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे, वह इकबाल को बहुत पसंद करने लगे और कुछ समय बाद इकबाल उन्हीं की सहायता से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए यूरोप गए। एम.ए. पास करके इकबाल कुछ समय के लिए ओरिएँटल कालेज और उसके पश्चात्‌ गवर्नमेंट कालेज, लाहौर में अध्यापक नियुक्त हो गए। 1905 ई. में इन्हें गवेषणापूर्ण अध्ययन के लिए इंग्लैंड और जर्मनी जाने का अवसर प्राप्त हुआ। 1908 ई. में डाक्टरी और बैरिस्टरी पास करके लाहौर लौट आए। आते ही गवर्नमेंट कालेज में फिर नियुक्त हो गए, परंतु दो ही वर्ष बाद वहाँ से अलग होकर वकालत करने लगे। 1922 ई. में 'सर' हुए और 1926 ई. में कौसिल में मेंबर। 1928 में मद्रास, मैसूर, हैदराबाद में रिकंस्ट्रक्शन ऑव रेलिजस थाट इन इस्लाम पर भाषण दिए। 1930 में प्रयाग में मुस्लिम लीग के सभापति चुने गए, जहाँ उन्होंने पाकिस्तान की प्रारंभिक योजना प्रस्तुत की। 1924 ई. से ही बीमार रहने लगे और अप्रैल, 1938 में लाहौर में देहाँत हो गया।

उर्दू कवियों में इकबाल का नाम 19वीं शताब्दी के अंत ही से लिया जाने लगा था और जब वह भारत से बाहर गए तो बहुत प्रसिद्ध हो चुके थे। लंदन में इकबाल ने उर्दू छोड़कर फारसी में लिखना आरंभ किया। कारण यह था कि इस भाषा के साधन से वह सभी मुसलमान देशों में अपने विचारों का प्रचार करना चाहते थे। इसीलिए फारसी में उर्दू से अधिक उनकी रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

इकबाल की कविता में दार्शनिक, नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक धाराएँ बड़े कलात्मक ढंग से मिल गई हैं। उनकी विचारधारा कुछ धार्मिक नेताओं और कुछ दार्शनिकों के गहरे ज्ञान से मिलकर बनी है। इकबाल ने जब लिखना आरंभ किया तो उनके विचार राष्ट्रीय भावों से भरे हुए थे परंतु धीरे-धीरे वह एक प्रकार की दार्शनिक संकीर्णता की ओर बढ़ते गए और अंत में उनका यह विश्वास हो गया कि मुसलमान भारतवर्ष में अलग ही रहकर सुखी रह सकते हैं। वैसे उन्होंने मनुष्य की आत्मशक्ति, मानव ज्ञान, सर्वगुणसंपन्न आलौकिक पुरुष, प्रकृति पर मनुष्य की विजय, व्यक्ति और समाज, पूर्व और पश्चिम के सांस्कृतिक संबंधों पर बहुत सी कविताएँ लिखी हैं, किंतु उनके पढ़नेवाले को यह अनुभव अवश्य होता है कि वे खुले हृदय से समस्त जनजातियों को एक सूत्र में बाँधने के लिए उत्सुक नहीं थे, वरन्‌ संसार में मुसलमानों का बोलबाला चाहते थे। इसलिए उनके दार्शनिक विचारों में जटिल प्रतिकूलता मिलती है। उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ ये हैं:

उर्दू में: 'बांगेदरा', 'बाले जिबरील', 'ज़र्बेकलीम' और फारसी में: 'असरारे खुदी', 'नमूज़े बेखुदी', 'पयामें मशरिक', 'ज़बूरे अज़म', 'जावेदनाम', 'मुसाफिर', 'पस चे बायद कर्द'।

अंग्रेजी में: 'लेक्चर्स ऑन रिकंस्ट्रक्शंस ऑव रेलिजस थॉट इन इस्लाम', 'डेवलपमेंट ऑव मेटाफिज़िक्स इन पर्शियन'।[१]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-सालिक: ज़िक्रे इकबाल; यूसुफ हुसेन खां: रूहे इकबाल; खलीफ़ा अब्दुल हकीम: फ़लसफ़ए इकबाल; मुहम्मद ताहिर: सीरते इकबाल; खलीफ़ा अब्दुल हकीम: फ़िक्रे इक़बाल; के.जी. सय्यदेन: इकबाल्स एजुकेशनल फ़िलॉसफ़ी; ए. गनी ऐंड नूर इलाही: बिब्लियोग्राफी ऑव इकबाल; मजहरुद्दीन: इमेज ऑव वेस्ट इन इकबाल।