डॉक्टर आनन्द के. कुमारस्वामी
डॉक्टर आनन्द के. कुमारस्वामी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 67-68 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भगवतारण उपाध्याय |
कुमारस्वामी, डॉ. आनंद के. (१८७७-१६४७ ई.) सुविख्यात कलामर्मज्ञ। इनका जन्म कोलुपित्या, कोलंबो (सिंहल) में २२ अगस्त १८७७ को हुआ था। उनके पिता सर मुतु कुमारस्वामी पहले हिंदू थे जिन्होंने १८६३ ई. में इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास की थी और मिस एलिजाबेथ क्ले नामक अंग्रेज महिला से विवाह किया था। इस विवाह के चार ही वर्ष बाद वे दिवंगत हो गए। आनंद कुमारस्वामी इन्हीं दोनों की संतान थे। पिता की मृत्यु के समय आनंद केवल दो साल के थे। उनका पालन-पोषण उनकी अंग्रेज माँ ने किया। १२ वर्ष की अवस्था में वे वाइक्लिफ़ कालेज में दाखिल हुए। १९०० ई. में लंदन यूनिवर्सिटी से भूविज्ञान तथा वनस्पतिशास्त्र लेकर उन्होंने प्रथम श्रेणी में बी. एस-सी. (आनर्स) पास किया और यूनिवर्सिटी कालेज, लंदन में कुछ काल फ़ेली रह लेने के बाद वे श्रीलंका के मिनरालाजिकल सर्वे के डाइरेक्टर नियुक्त हुए। तीन वर्ष सिंहल में रहकर उन्होंने सीलोन सोशल रिफ़ार्मेशन सोसाइटी का संगठन किया और यूनिवर्सिटी आंदोलन का नेतृत्व किया। १९०६ में लंदन से डी. एस-सी. की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत वे ललित कलाओं की ओर झुके और भारत तथा दक्षिणपूर्वी एशिया का भ्रमणकर प्राचीन मूर्तियों और चित्रों का अध्ययन किया। विज्ञान के विचक्षण विद्यार्थी होकर एवं लंका के मिनरालाजिकल सर्वे का सर्वोच्च पद छोड़ उन्होंने अपनी विशिष्ट अभिरुचि ललितकला के प्रति जागृत की और आज उस दिशा में उनका प्रयत्न इतना गहरा और सिद्ध है कि किसी को गुमान तक नहीं होता कि उनका संबंध विज्ञान से भी हो सकता था। संसार में बहुत कम विद्वान ऐसे हुए हैं जिनकी प्रतिभा इतनी बहुमुखी रही हो जितनी आनंद कुमारस्वामी की थी। उनकी खोज दर्शन, पराविद्या, धर्म, मूर्ति और चित्रकला, भारतीय साहित्य, इस्लामी कला, संगीत, विज्ञान आदि के विविध क्षेत्रों में लब्धप्रतिष्ठ हुई। प्रत्येक क्षेत्र में जिस मौलिकता का उन्होंने परिचय दिया वह अन्यत्र दुर्लभ है। उपनिषदों के भावतत्व का उन्होंने निरूपण कर कला के संदर्भ में उसकी जो अभिव्यंजना की वह सर्वथा नया दृष्टिकोण था। १९१० में कलकत्ते की इंडियन सोसाइटी ऑव ओरिएंटल आर्ट के तत्वावधान में उन्होंने मुगल और राजपूत चित्रकला पर जो भाषण दिया, वह उनके असाधरण ज्ञान का परिचायक था। १०११ में इंग्लैंड जाकर उन्होंने अन्य विद्वानों के साथ लंदन की इंडिया सोसाइटी की नींव डाली जो आज रायल इंडिया पाकिस्तान ऐंड सीलोन सोसाइटी के नाम से विख्यात है। १९१७ में वे बोस्टन के ललितकला संग्रहालय के भारतीय विभाग के संग्रहाध्यक्ष नियुक्त हुए और मृत्यु तक वहीं रहे। १९२० में उन्होंने विश्वभ्रमण किया और अगले साल श्रीलंका में भारतीय तथा प्राचीन सिंहली कला पर व्याख्यान दिए। १९२४ में न्यूयार्क में इंडियन कल्चर सेंटर की नींव डाली जिसके वे प्रथम प्रधान भी हुए। अमरीका में उसके बाद उनके व्याख्यानों की परंपरा बन गई और १९३८ में वाशिंगटन की संस्था नैशनल कमिटि फ़ार इंडियाज फ्ऱीडम के वे अध्यक्ष बने।
१९०८ में उनकी प्रसिद्ध कृति ‘द एम्स ऑव इंडियन आर्ट’ प्रकाशित हुई और दो वर्ष बाद आर्ट ऐंड स्वदेशी। १९१३ में आर्ट्स ऐंड क्रैफ्ट्स ऑव इंडिया ऐंड सीलोन और अगले ही साल भगिनि निवेदिता के साथ ‘मिथ्स ऑव हिंदूज़ ऐंड बुद्धिस्ट’ प्रकाशित हुआ। तदनंतर ‘बुद्ध ऐंड दि गास्पेल ऑव बुद्धिज्म द डांस ऑव शिव’ और बोस्टन संग्रहालय के विविध कैटलग प्रकाशित हुए। १९२३ में ‘इंट्रोडक्शन टु इंडियन ऐंड इंडोनेशियन आर्ट’ छपी। इसी बीच डॉ. कुमारस्वामी ने फ्रेंच में भी कलासंबंधी तीन पुस्तकें प्रकाशित की जिनके नाम हैं : ‘लेज़ार ए मातिए द लींद ए द सिलान’, ‘पूर कोंप्रांद लार ईन्दू’ और ‘ले मिनियातूर ओरियांताल द ला कलेक्सी ओ गुलूबे’। १९३० से कुमारस्वामी का रुझान दर्शन की ओर विशेष हो गई और सन् ३३ में उन्होंने वेदों के अध्ययन स्वरूप ‘ए न्यू ऐप्रोच वेदाज़ ऐसे इन ट्रांसलेशन ऐंड एक्सिजेसिस’ प्रकाशित करते रहे। पर कुमारस्वामी का संबंध जीवन के अंत तक कला से बना रहा और वे ललितकलाओं पर अपने विचार दार्शनिक स्तर से प्रकाशित करते रहे। ‘एलिमेंट्स ऑव बुद्धिस्ट आइकानोग्राफी’ (१९३७) तथा ‘ह्वाई एग्ज़िविट वर्क्स ऑव आर्ट आर्ट? ‘ (१९३४) इसी प्रकार के चिंतन के परिणाम थे। १९४४ में ७० वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हुई। मृत्यु के बाद उनकी कृति ‘लिविंग थाट्स ऑव गोतम दि बुद्धा’ प्रकाशित हुई।
टीका टिप्पणी और संदर्भ