तंत्रिकाविकृति विज्ञान
तंत्रिकाविकृति विज्ञान
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 298-299 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | प्रियकुमार चौवे |
तंत्रिकाविकृति विज्ञान (Neuropathology) वह विज्ञान है, जो तंत्रिकातंत्र के रोगों से संबंध रखता है (देखें तंत्रिका तथा तंत्रिका तंत्र)।
तंत्रिकातंत्र को प्रभावित करनेवाली प्रक्रियाओं को सामान्यत: दो बड़े समूहों में विभक्त किया गया है:
- कायिक रोग (Organic Diseases)*
- क्रियागत रोग (Functional Diseases)*
इनमें से कायिक रोगों का अध्ययन अधिक विस्तार से हुआ है।
तंत्रिकातंत्र के दो प्रमुख अवयव होते हैं: एक औतिकी तत्व, जिसे तंत्रिका कोशिकाएँ (Neurones) कहते हैं, और दूसरा उसका आलंबक, संरक्षक और पोषक, ऊतक तत्व। इनमें तंत्रिका कोशिकाएँ ही सब प्रकार की संवेदनाओं और संवेगों का मूल हैं। इनकी संख्या प्राणियों के विकास स्तर के अनुसार बढ़ती जाती है। आजकल के सुशिक्षित एवं उच्च कोटि के दायित्ववाले मनुष्यों में इनकी संख्या १५ अरब तक बतलाई जाती है (देखें तंत्रिका)।
कायिक रोग
ये तंत्रिका कोशिकाओं में आरंभ होकर, इन्हीं का अपकर्षण (degeneration) करते हैं, जिससे तंत्रिकातंत्र के वास्तविक रोग उत्पन्न होते हैं। आलंबक, संरक्षक और पोषक ऊतकों में रोग उत्पन्न होकर तंत्रिका कोशिकाओं में फैल सकते हैं। ऐसी दशा में रूधिर वाहिनियों लसिकावाहिनियों, झिल्लियों और बिशिष्ट तंत्रिका-संयाजक-ऊतकों में परिवर्तन, तथा अर्बुद (turnour) और इसी प्रकार की अन्य वृद्धियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
तंत्रिका कोशिका में विकृति की क्रियाओं के कारणों को (१) आंतर कारणों तथा (२) ब्ह्रा कारणों में विभक्त किया गया है।
आंतर कारण
समस्त तंत्रिका विकृति के आंतर कारणों में वंशानुगत पूर्ववृत्ति (predisposition) बड़े महत्व की बात है। अनेक स्थलां पर मानसि रोगियों के परीक्षण से स्पष्ट रूप से पता लगता है कि अधिकांश रोगियों में उनके काई न कोई पूर्वज, माता या पिता, मातामह या पितामह, या अन्य दूर के पूर्वज, मानसिक रोग से आक्रांत थे। ऐसा अपस्मार (epilepsy), हिस्टीरिया, मन:श्रांति (neurasthenia), अर्धकपाली (migraine), उन्माद, मनोविक्षिप्ति (psychosis), सविषाद इत्यादि रोगों में विशेष रूप में देखा गया है।
बाह्य कारण (१) इनमें रूधिर और लसीका की असामान्य दशा है, जिससे तंत्रिका कोशिकाएँ विषाक्त होती हैं; (२) सामान्य उद्दीपन (stimulation) की अधिकता या न्यूनता, या असामान्य (abnormal) उद्दीपन की उपस्थिति तथा(३) आलंबक या वाहिका (vascular) ऊतकों का क्षतिग्रस्त या रोगग्रस्त होना।
रूधिर और लसीका की असामान्य दशा में तंत्रिकातंत्र की रूधिर प्राप्ति में कमी, रुधिर की सामान्य दशा में परिवर्तन, रुधिर के सामान्य अवयवों की कमी या अनुपस्थिति, कुछ सामान्य अवयवों की अधिकता, शरीर में कुछ असामान्य पदार्थो की उपस्थिति इत्यादि कारण हैं।
यदि रुधिर में ऑक्सीजन की कमी हो, जैसा मूर्छा (syncope) में होता है, तो उससे कार्यात्मक अवसाद (functional depression), शिथिलता (lassitude) और मानसिक थकान हो सकती है। बार बार गर्भाधान और शिशु को अधिक दूध पिलाने से स्त्रियों में तंत्रिबंध (neuralgia), तांत्रिक परिश्रांति (nervous exhaustion) एवं हिस्टीरिया आद लक्षण प्रकट हो सकते हैं। रुधिर में यद कार्बोनिक अम्ल (carbonic Acid) का आधिक्य रहे तो उससे निद्रालुता (drowsiness) या ऐंठन (Convulsions) हो सकती है। रुधिर में यदि नाइट्रोजन उत्पादों का बाहुल्य हो तो रक्तमूत्र विषाक्तता (uraemia) हो सकती है। इसके लक्षणों में सिर दर्द, निद्रालुता, अचेतनता, अपस्मार, ऐंठन और कभी कभी बहुतंत्रिक शोथ (polyneuritis) प्रधान हैं। शरीर में उत्पन्न विषसूक्ष्माणुओं तथा बार से प्रविष्ट विषों से भी तंत्रिका रोग होते हैं। दुष्ट रक्तक्षीणता (pernicious anaemia) में तंत्रिका रोग होते हैं। दुष्ट रक्तक्षीणता (pernicious anaemia) में तंत्रिका जीवविष (neurotoxin) के कारण मेरुरज्जु का अपकर्षण होता है। यह ्ह्रास पाचननाल में अपूर्ण उपापचय या दूषित अवशोषण के कारण होता है। इससे अम्लोपचय (acidosis) उत्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप तंत्रिका रोगों की उत्पत्ति होती है।
सक्रामी सूक्ष्माणुओं (infective micro-organisms) द्वारा विष उत्पन्न होता है, जो रक्त को दूषित करके ज्वर की उत्पत्ति करता है। उग्र रूप में संज्ञाहीनता (delirium), जड़िमा (stupor) और समूर्च्छा (coma) भी हो सकती है। शरीर में प्रजीवाणुओं (protozoon) के प्रवेश से भी तंत्रिकारोग उत्पन्न हो सकते हैं। उपदंश, मलेरिया, तथा अफ्रीकी निद्रालुरोग विशेष प्रजीवाणुओं के कारण होते हैं।
तंत्रिकारोगों के निदान में प्रमस्तिष्क-मेरू-द्रव (cerebrospinal fluid) का बड़ा महत्व है और इससे निदान में बड़ी सहायता मिलती है। सामान्य मेरूद्रव जल सा स्वच्छ होता है। इसका विशिष्ट गुरुत्व १.००६ होता है। इसमें प्रोटीन ०.३से ०.५ प्रतिशत और ग्लूकोज ०.५ प्रति शत रहता है। इसमें रुधिर का होना मस्तिष्कगत रक्तस्राव का सूचक है। अनेक तांत्रिक रागों में इसके परीक्षण से पर्याप्त सहायता मिलती है। इनमें मेरुद्रव को निकालकर उसका अपकेद्रण करते हैं। इससे ठोस पदार्थ बैठ जाते हैं। इसके उपरांत उसका अभिरंजन (द्मद्यaत्दत्दढ़) कर सूक्ष्मदर्शी से उसका परीक्षण करे हैं। इसकी कोशिकाआं में कोशिकातत्वों (cellular elements) की अनुपस्थिति तंत्रिकातंत्र के रागों की द्योतक है। तंत्रिकातंत्र के रोगों तथा मानसिक रोगों का सबसे प्रमुख सहायक कारण मादक वस्तुओं का अत्यधिक सेवन है। मानसिक रोगों के अतिरिक्त, मदिरा के अत्यधिक सेवन से पक्षाघात तक हो जाता है। तंत्रिकातंत्र पर कुप्रभाव डालने-वाली अन्य मादक वस्तुओं में ईथर,कोकेन, अफीम, मॉर्फिया तथा तंबाकू भी है। आलंबक रचनाओं के क्षतिग्रस्त होने से भी तंत्रिकातंत्र में पक्षाघात या क्षोभ होता है। इस प्रकार की क्षति या तो सीधे चोट लगने से, अथवा आलंबक रचनाओं में औपसर्गिक शोथ के प्रसार के कारण, होती है। इसमें तंत्रिका ऊतक में स्थायी विकृति आ जाती है। इसमें मध्यकर्ण के रोग प्रधान हैं, क्योंकि इसी से मस्तिष्क शोथ (encephalitis) एवं मस्तिष्क आवरण शोथ (meningitis) तथा मस्तिष्क का फोड़ा (brain abscess) इत्यादि रोग होते हैं।
कायिक मस्तिष्क व्याधियों की उत्पत्ति में रक्तवाहिनियों का प्रमुख हाथ है। इसमें धमनी और शिराएँ विविध कारणों से अवरूद्ध एवं विदीर्ण हो जाती हैं, जिससे तत्काल रोगी संज्ञाहीन हो जाता है। यह आगे चलकर पक्षाघात और विशेषरूप से अर्धांग पक्षाघात (hemiplegia) का स्वरूप धारण कर लेती है।
मस्तिष्कीय रक्तवाहिनियाँ रक्तस्रोतरोधन (embolism) तथा ्थ्राॉम्बोसिस (thrombosis) के उस भाग में रक्त का अभाव हो जाता है और वहाँ के ऊतक अत्यंत मृदु हो जाते हैं। केंद्रीय एवं प्रांतीय तंत्रिका तंत्र में एक या प्रने अर्बुदों के दबाव से भी स्थाई तंत्रिका विकार हो जाते हैं, जैसे दृष्टि तंत्रिका शोथ (optic neuritis), तीव्र सिरशल, वमन इत्यादि। इनमें अंत:करोटि दबाव (intracranial pressure) अत्यधिक बढ़ जाता है।
कुछ अर्बुद अत्यधिक संवहनीय (vascular) हुआ करे हैं। इनी दीवार बहुत पतली होती है। इसके विदीर्ण हो जाने के फलस्वरूप ऐपोप्लेक्टिक दौरा (apoplectic fit) होता है, जो आगे चलकर आक्रांत स्थान के अनुसार विभिन्न प्रकार के पक्षाघात का रूप ले लेता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ