तत्त्व
तत्त्व
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 307 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सत्यप्रकाश |
तत्व शब्द के साहित्यिक अर्थ अनेक हैं, पर रसायन विज्ञान में इसका प्रयोग विशेष अर्थ में होता है। पंचतत्व के अंतर्गत हमारे साहित्य में पृथ्वी, जल, तेजस, वायु और आकाश इनकी गणना बहुत पुराने समय से होती आ रही है। पंचज्ञानेंद्रियों से रूप, रस, गंध स्पर्श और शब्द इन पंचतन्मात्राओं, पंचविषयों या पाँच संवेदनाओं की अनुभूति होती है और जिन स्थूल भूतों के कारण ये पंचतन्मात्राएँ व्यक्त होती हैं उन्हें ही पंचतत्व कहते हैं। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों के आधार पर पृथ्वी का गुण गंध है और तद्विषयक ज्ञानेंद्रिय नासिका है, जल का गुण रस है और तद्विषयक ज्ञानेंद्रिय रसना या जिह्वा है, तेजस् या अग्नि का गुण रूप है और तद्विषयक ज्ञानेंद्रिय चक्षु है, वायु का गुण स्पर्श है और तद्वविषयक ज्ञानेंद्रिय त्वचा है तथा आकाश का गुण शब्द है, जिससे संबंध रखनेवाली ज्ञानेंद्रिय कर्ण हैं। चीन के विद्वान् भी पुराने समय में, जैसा ईसा से २,००० वर्ष पूर्व के लेख शू-किंग से पता चलता है, पाँच तत्व मानते थे। समस्त भौतिक सृष्टि के मूलाधार तत्व थे: पृथ्वी, अग्नि, जल धातु और काष्ठ। इन विद्वानों ने तत्व शब्द की कभी स्पष्ट परिभाषा देने की चेष्टा नहीं की। अरस्तू ने तत्वों के साथ भौतिक गुणों के संबंध का निर्देश किया। ये गुण थे: शुष्क या आर्द्र, उष्ण या शीतल और गुरु (भारी) या अल्प गुरु (हलका)। यूरोप में १६वीं शती में रसायन के क्षेत्र का विस्तार हुआ, मामूली धातुओं को स्वर्ण में परिणत करना और आयु बढ़ाने एवं शरीर को नीरोग करने के लिये ओषधियों की खोज करना रसायन का लक्ष्य बना। पैरासेल्सस ने तीन या चार तत्व माने, जिसके मूलाधार लवण, गंधक और पारद माने गए। ये तीनों क्रमश: स्थिरता, दहन या ज्वलन, एवं द्रवत्व या वाष्पशीलता के गुणों से संबंध रखते थे। १७वीं शती में फ्रांस एवं इंग्लैड में भी इसी प्रकार के विचारों के प्रश्रय मिलता रहा। डा० विलिस (१६२१-१६७५ ई०) ने मूलाधार सक्रिय तत्व ये माने : पारा या स्पिरिट, गंधक या तेल और लवण तथा इनके साथ निष्क्रिय तत्व जल या कफ और मिट्टी भी माने। जे० बी० वान हेलमॉण्ट (१५७७-१६४४ ई०) ने पानी को ही मुख्य तत्व माना और ये लवण, गंधक और पारे को भी मूलत: पानी समझते थे। हवा को भी उन्होने तत्व माना।
तत्व के संबंध में सबसे अधिक स्पष्ट विचार रॉबर्ट बॉयल (१६२७-१६९१ ई०) ने १६६१ ई० में रखा। उसने तत्व की परिभाषा यह दी कि हम तत्व उन्हें कहेंगें, जो किसी यांत्रिक या रासायनिक क्रिया से अपने से भिन्न दो पदार्थों में विभाजित न किए जा सकें। स्टाल ने चार तत्व माने थे अम्ल, जल, पृथ्वी और फलॉजिस्टन। यह अंतिम तत्व वस्तुओं के जलने में सहायक होता था। रॉबर्ट बॉयल की परिभाषा को मानकर रसायनज्ञों ने तत्वों की सूची तैयार करनी प्रारंभ की। बहुत समय तक पानी तत्व माना जाता रहा। १७७४ ई० में प्रीस्टली ने ऑक्सिजन गैस तैयार की। कैवेंडिश ने १७८१ ई० में ऑक्सिजन और हाइड्रोजन के योग से पानी तैयार करके दिखा दिया और तब पानी तत्व न रहकर यौगिकों की श्रेणी में आ गया। लाव्वाज्य़े ने १७८९ ई० में यौगिक और तत्व के प्रमुख अंतरों को बताया। उसके समय तक तत्वों की संख्या २३ पहुँच चुकी थी। १९वीं शती में सर हफ्रीं डेवी ने नमक के मूल तत्व सोडियम को भी पृथक् किया और कैल्सियम तथा पोटासियम को भी योग्काेिं में से अलग करके दिखा दिया। डेवी के समय के पूर्व क्लोरिन के तत्व होने में संदेह माना जाता था। लोग इसे ऑक्सिम्यूरिएटिक अम्ल मानते थे, क्योकि यह म्यूरिएटिक अम्ल (नमक का तेजाब) के ऑक्सीकरण से बनता था, पर डेवी (१८०९-१८१८ ई०) ने सिद्ध कर दिया कि क्लोरीन तत्व है।
प्रकृति में कितने तत्व हो सकते हैं, इसका पता बहुत दिनों तक रसायनज्ञों को न था। अत: तत्वों की खोज के इतिहास में बहुत से ऐसे तत्वों की भी घोषणा कर दी गई, जिन्हें आज हम तत्व नहीं मानते। २०वीं शती में मोजली नामक तरुण वैज्ञानिक ने परमाणु संख्या की कल्पना रखी, जिससे स्पष्ट हो गया कि सबसे हलके तत्व हाइड्रोजन से लेकर प्रकृति में प्राप्त सबसे भारी तत्व यूरेनियम तक तत्वों की संख्या लगभग १०० हो सकती है। रेडियोधर्मी तत्वों की खोज ने यह स्पष्ट कर दिया कि तत्व बॉयल की परिभाषा के अनुसार सर्वथा अविभाजनीय नहीं है। प्रकृति में रेडियम विभक्त होकर स्वयं दूसरे तत्वों में परिणत होता रहता है। गत ३० वर्षो के प्रयोगों ने यह भी संभव करके दिखा दिया है कि हम अपनी प्रयोगशालाओं में तत्वों का विभाजन और नए तत्वों का निर्माण भी कर सकते हैं। यूरेनियम के आगे ८-९ तत्वों को कृत्रिम विधि से बनाया भी जा सका है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ