तर्कशास्त्र (लॉजिक)
तर्कशास्त्र शब्द अंग्रेजी 'लॉजिक' का अनुवाद है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इस प्रकार के नामवाला कोई शास्त्र प्रसिद्ध नहीं है। भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र का जन्म स्वतंत्र शास्त्र के रूप में नहीं हुआ। अक्षपाद गोतम या गौतम (३०० ई०) का 'न्यायसूत्र' पहला ग्रंथ है, जिसमें तथाकथित तर्कशास्त्र की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। उक्त सूत्रों का एक बड़ा भाग इन समस्याओं पर विचार करता है, फिर भी उक्त ग्रंथ में यह विषय दर्शनपद्धति के अंग के रूप में निरूपित हुआ है। न्यायदर्शन में सोलह परीक्षणीय पदार्थों का उल्लेख है। इनमें सर्वप्रथम 'प्रमाण' नाम का विषय या पदार्थ है। वस्तुत: भारतीय दर्शन में आज के तर्कशास्त्र का स्थानापन्न 'प्रमाणशास्त्र' कहा जा सकता है। किंतु जैसा हम देखेंगे, प्रमाणशास्त्र की विषयवस्तु तर्कशास्त्र की अपेक्षा अधिक विस्तृत है।
यूरोप में तर्कशास्त्र का प्रवर्तक एवं प्रतिष्ठाता यूनानी दार्शनिक अरस्तू (३८४-३२२ ई० पू०) समझा जाता है, यों उससे पहले कतिपय तर्कशास्त्रीय समस्याओं पर वैतंडिक (सोफिस्ट) शिक्षकों, सुकरात तथा अफलातुन या प्लेटो द्वारा कुछ कुछ चिंतन हुआ था। यह दिलचस्प बात है कि स्वयं अरस्तू, जिसने विचारों के इतिहास में पहली बार ज्ञान का विभिन्न शाखाओं में विभाजन किया, 'तर्कशास्त्र' नाम से परिचित नहीं है। उसने अपनी एतद्विषयक विचारणा को 'एनेलिटिक्स' (विश्लेषिकी) नाम से अभिहित किया है। तर्कशास्त्र के वाचक शब्द 'लाजिका' का सर्वप्रथम प्रयोग रोमन लेखक सिसरो (१०६-४३ ई० पू०) में मिलता है, यद्यपि वहाँ उसका अर्थ कुछ भिन्न है।
अरस्तू के अनुसार तर्कशास्त्र का विषय चिंतन है, न कि चिंतन के वाहक शब्दप्रतीक। उसके तर्कशास्त्रीय ग्रंथों में मुख्यत: निम्न विषयों का प्रतिपादन हुआ है : (१) पद (टर्म्स); (२) वाक्य या कथन; (३) अनुमान और उसके विविध रूप, जिन्हें न्यायवाक्यों (सिलाजिज्मों) के रूप में प्रकट किया जाता है। वाक्य पदों से बनता है। प्रत्येक पद कुछ वस्तुओं का संकेत करता है, और कुछ गुणों या विशेषताओं का बोधक भी होता है। वस्तुसंकेत की विशेषता पद का 'डिनोटैशन' कहलाती है, संकेतित स्वरूपप्रकाशक गुणों को समष्टि रूप में 'कॉनोशन' कहते हैं, जैसे 'मनुष्य' पद का डिनोटेशन 'सब मनुष्य' है, उसका कॉनोटेशन 'प्राणित्व' तथा 'बुद्धिसंपन्नत्व' है। (मनुष्य की परिभाषा है - मनुष्य एक बुद्धिसंपन्न प्राणी है।) प्रत्येक वाक्य में एक उद्देश्य पद होता है, एक विधेय पद और उन्हें जोड़नेवाला संयोजक। विधेय पद कई श्रेणियों के होते हैं, कुछ उद्देश्य का स्वरूप-कथन करनेवाले, कुछ उसकी बाहरी विशेषताओं को बतलानेवाले।। विधेय पदों के वर्गीकरण का अरस्तू के परिभाषा संबंधी विचारों से घना संबंध है। वाक्यों (तर्कवाक्यों) या कथनों का वर्गीकरण भी कई प्रकार होता है; अर्थात गुण, परिमाण, संबंध और निश्चयात्मकता के अनुसार। संबंध के अनुसार वाक्य कैटेगॉरिकल (कथन रूप : राम मनुष्य है); हेतुहेतुमद् (यदि नियुक्ति हुई, तो वह पटना जायेगा); और डिस्जंक्टिव (वह या तो मूर्ख है, या दुष्ट) होते हैं। निश्चायात्मकता के अनुसार कथनात्मक (राम यहाँ है), संभाव्य (संभव है वह पटना जाए) और निश्चयात्मक (वर्षा अवश्य होगी) तीन प्रकार के होते हैं। वाक्य का प्रमुख रूप 'कैटेगारिकल' (निरपेक्ष कथन रूप) है। वैसे वाक्यों का वर्गीकरण गुण (विघेयात्मक तथा प्रतिषेधात्मक) तथा परिमाण (कुछ अथवा सर्व संबंधी) के अनुसार होता है। गुण और परिमाण के सम्मिलित प्रकारों के अनुरूप वर्गीकरण द्वारा चार तरह के वाक्य उपलब्ध होते हैं, जिन्हे रोमन अक्षरों - ए, ई, आई, ओ द्वारा संकेतिक किया जाता है। विधेयात्मक सर्व संबंधी वाक्य की संज्ञा ए है, जैसे 'कोई मनुष्य पूर्ण नहीं है'; कुछ संबंधी विधायक और निषेधक वाक्य क्रमश: आई व ओ कहाते है; यथा - 'कुछ मनुष्य शिक्षित हैं' और 'कुछ मनुष्य शिक्षित नहीं है।'
अरस्तू के तर्कशास्त्र का प्रधान प्रतिपाद्य विषय न्यायवाक्यों में व्यक्त किए जानेवाले अनुमान है; सही अनुमान १९ प्रकार के होते हैं जो चार तरह की अवयवसंहतियों में प्रकाशित किए जाते हैं। चार प्रकार के न्वायवाक्य या अवयवसंहतियाँ 'फिगर्स' कहलाती हैं, और उनमें पाए जानेवाले सही अनुमानरूप 'मूड' कहे जाते हैं। ये 'मूड' दूसरी 'फिगरों' से पहली 'फिगर' के रूपों में परिवर्तित किए जा सकते हैं। प्रथम 'फिगर' सबसे पूर्ण 'फिगर' मानी जाती है।
भारतीय दर्शन में, जैसा ऊपर कहा गया, जिस चीज का विकास हुआ, वह प्रमाणशास्त्र है; तथाकथित तर्कशास्त्र उसका एक भाग मात्र है। गोतम के 'न्यायसूत्र' में प्रमा या यथार्थ ज्ञान के उत्पादक विशिष्ट या प्रधान कारण 'प्रमाण' कहलाते हैं; उनकी संख्या चार है, अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। भाट्ट मीमांसकों और वेदांतियों के अनुसार प्रमाण छह हैं, अर्थात उपयुक्त चार तथा अर्थापत्ति व अनुपलब्धि। भारतीय ज्ञान मीमांसा में उक्त प्रमाणों को लेकर बहुत चिंतन और विवाद हुआ है। बौद्धों, नैयायिकों, वेदांतियों आदि के द्वारा किया हुआ प्रत्यक्ष का विश्लेषण विशेष रूप में उनके अपने अपने तत्वमीमांसा संबंधी विचारों से प्रभावित है। न्याय के अनुसार अनुमान दो प्रकार का होता है, परार्थानुमान तथा स्वार्थानुमान। अनुमान के बोधक न्यायवाक्य में पाँच वाक्य होते हैं जो क्रमश: प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन कहलाते हैं। वेदांतियों के अनुसार इन पाँचों में से शुरू या बाद के तीन वाक्य अनुमान के लिये पर्याप्त है। बौद्ध तर्कशास्त्री धर्मकीर्ति के मत में त्रिरूप अर्थात् तीन विशेषताओं से युक्त लिंग या हेतु ही अनुमान का कारण है। ये तीन विशेषताएँ हैं- अनुमेय या पक्ष (पर्वत) में निश्चित उपस्थिति; सपक्ष (महानस या रसोईघर) में ही उपस्थिति (सब सपक्षों में नहीं किंतु कुछ में); और असपक्ष या विपक्ष (सरोवर) में निश्चित अनुपस्थिति (समस्त विपक्षों में अनुपस्थिति)। यहाँ पर्वत पक्ष है, जहाँ धूम की उपस्थिति से अग्नि का अनुमान किया जाता है; रसोईधर सपक्ष है, जहाँ ही निश्चित उपस्थिति के साथ धूम की उपस्थिति विदित है, जहाँ अग्नि के साथ धूम की अनुपस्थिति निश्चित है।
तर्कशास्त्र का स्वरूप
आगे हम 'तर्कशास्त्र' शब्द का प्रयोग उसके संकीर्ण, आधुनिक अर्थ में करेंगे। इस अर्थ के दायरे में तर्कशास्त्र की परिभाषा क्या होगी? जान स्टुअर्ट मिल के मत में तर्कशास्त्र का विषय अनुमिमियाँ हैं, न कि अनुभवगम्य सत्य। तर्कशास्त्र विश्वासों का विज्ञान नहीं है, वह उपपत्ति (प्रूफ) अथवा साक्ष्य (एवीडेंस) का विज्ञान नहीं है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र हमारे ज्ञान का वह अंश है, जिसका रूप 'पूर्वज्ञात सत्यों से अनुमित' होता है। तर्कशास्त्र का कार्य किसी सत्य का साक्ष्य जुटाना नहीं है, वह यह आँकने का प्रयत्न है कि किसी अनुमिति के लिये उचित साक्ष्य प्रस्तुत किया गया है या नहीं। संक्षेप में तर्कशास्त्र का काम सही अनुमिति के आधारों की खोज है। तर्कशास्त्र का ज्ञान हममें यह देखने और आँकने की क्षमता उत्पन्न करता है कि किसी सत्य का साक्ष्य जुटाना नहीं है, वह यह आँकने का प्रयत्न है कि किसी अनुमिति के निश्चयात्मक आधारों का ज्ञापन ही है, अर्थात् उसका विषय निश्चयात्मक अनुमितियों और आधारभूत साक्ष्य के संबंधों को स्पष्ट करना अथवा उन नियमों को प्रकाश में लाना है जो सही अनुमान प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। इसलिए कभी कभी कहा जाता है कि तर्कशास्त्र एक नियामक (नारमेटिव, आदर्शक, आदर्शान्वेषी) विज्ञान या शास्त्र है, जिसका कार्य अनुमिति या तर्क के आदर्श रूपों को स्थिर करना है। इसके विपरीत भौतिकी या भौतिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि यथार्थानवेषी (पाजिटिव) विज्ञान है, जो वस्तुसत्ता के यथार्थ या वास्तविक रूपों या नियमों का अन्वेष्ण करते हैं।
विज्ञानों का यह वर्गीकरण कुछ हद तक भ्रामक है। तर्कशास्त्र या आचारशास्त्र (नीतिशास्त्र) नियामक शास्त्र है, इस कथन का यह अर्थ लगाया जा सकता है कि उक्त शास्त्र कृत्रिम ढंग से क्षेत्रविशेष में मानव व्यवहार के नियमों का निर्देश करते हैं। मानो सही चिंतन एवं सही नैतिक व्यवहार के नियम मानव प्रकृति के निजी नियम न होकर उसपर बाहर से लादे जानेवाले नियम हैं। किंतु बात ऐसी नहीं है। वस्तुत: तर्कशास्त्र उन नियमों को, जो सही चिंतन प्रकारों में स्वत:, स्वभावत: ओतप्रोत समझे जाते हैं, प्रकट रूप में निर्देशित करने का उपकरण मात्र है। विचारशील मनुष्य स्वत:, स्वभावत: सही और गलत चिंतन में, निर्दोष एवं सदोष तर्कना- प्रकारों में अंतर करते हैं। किंतु इस प्रकार का अंतर करते हुए वे किन्हीं नियामक आदर्शों या कानूनों की अवगति या चेतना का परिचय नहीं देते। सही समझे जानेवाले तर्कना प्रकारों का विश्लेषण करके उनमें अनुस्यूत नियमों को सचेत जानकारी के धरातल पर लाना, यही तर्कशास्त्र का काम है। इसी प्रकार आचारशास्त्र भी हमें उन नियमों या आदर्शो की जानकारी देता है, जो हमारे भले बुरे के निर्णयों में, अनजाने रूप में, परिव्याप्त रहते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि विशिष्ट आचार पद्धति, अथवा किसी समाज की आचारसंहिता तथा नैतिक शिक्षा, उस समाज के नैतिक पक्षपातों को प्रकाशित करती है। इसी अर्थ में देशविशेष, कालविशेष अथवा समाजविशेष के नैतिक विचारक अपने देश, युग अथवा समाज के प्रतिनिधि चिंतक होते हैं।
तर्कशास्त्र के संबंध में उक्त मान्यता से एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष अनुगत होता है। यदि किन्हीं कारणों से मनुष्य की चिंतनप्रणाली अथवा तर्कप्रणाली में परिवर्तन या विकास हो, तो उसके अनुरूप तर्कशास्त्रीय मंतव्यों में भी परिवर्तन या विकास हो सकता है। तर्कशास्त्र के इतिहास में ऐसा भी होता है कि कालांतर में चिंतन के पुराने मानदंडों या नियमों में संशोधन आवश्यक हो जाता है; नए चिंतनप्रकारों की सृष्टि के साथ साथ नवीन तर्कशास्त्रीय नियमों का निरूपण भी अपेक्षित हो सकता है। यूरोप में जब भौतिक विज्ञान की प्रगति शुरू हुई, तो वहाँ क्रमश: अरस्तू की निगमनप्रणाली की आलोचना और उससे भिन्न आगमनप्रणाली की परिकल्पना और प्रशंसा भी होने लगी। यूरोपीय वैचारिक इतिहास में इस कोटि का कार्य लार्ड बेकन ने किया। बाद में, वैज्ञानिक अन्वेषण प्रणाली का अधिक विश्लेषण हो चुकने पर, यूरोप के तर्कशास्त्रियों ने निगमनमूलक विचारपद्धति (डिडक्टिव सिस्टम) एवं परिकल्पना निगमनप्रणाली (हाइपोथेटिकल डिडक्टिव मेथड) जैसी अवधारणाओं का विकास किया। आगमनात्मक तर्कशास्त्र (इंडक्टिव लॉजिक) में उन नियमों का विचार किया जाता है, जो निरीक्षित घटनाओं या व्यापारों के आधार पर तत्संबंधी सामान्य कथनो की उपलब्धि या निरूपण संभव बनाते हैं। सामान्य कथन प्राय: व्याप्तिवाक्यों का रूप धारण कर लेते हैं। भारतीय प्रमाणशास्त्र में इस प्रशन को लेकर कि व्याप्तिवाक्य की उपलब्धि कैसे होती है, काफी छानबीन की गई है। 'जहाँ' जहाँ धूम होता है, वहाँ अग्नि होती है यह व्याप्ति वाक्य है। स्पष्ट ही हमारे निरीक्षण में धूम और अग्नि के साहचर्य के कुछ ही उदाहरण आते हैं। प्रश्न है, कुछ स्थितियों में निरीक्षित दो चीजों के साहचर्य से हम उनके सार्वदेशिक और सार्वकालिक साहचर्य की कल्पना के औचित्य को कैसे सिद्ध कर सकते है? इस समस्या को तर्कशास्त्र में आगमनात्मक प्लुति (इंडक्टिव लीप) की समस्या कहते हैं। परिकल्पना निगमनप्रणाली इस उलझन में पड़े बिना सामान्य कथनों अथवा व्याप्तिवाक्यों की प्रामाणिक प्रकल्पना के प्रश्न का समाधान प्रस्तुत कर देती है। संक्षेप में आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषण की प्रणाली यह है: निरीक्षित घटनासहतियों से प्रेरणा लेकर वैज्ञानिक अन्वेषक नियमसूत्रों की परिकल्पना करता है; इसके बाद वह उन परिकल्पनाओं से कुछ ऐसे निष्कर्ष निकालता है, जिनका प्रयागों द्वारा परीक्षण हो सके। जहाँ तक किसी परिकल्पना के निष्कर्ष प्रयोगविधि से समर्थन पाते हैं, वहाँ तक यह समझा जाता है कि वह परिकल्पना परीक्षा में सफल हुई। परिकल्पना में निहित सामान्य नियम अंतत: अन्वेषक की स्वच्छंद कल्पना की सृष्टि होता है, ऐसा प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन का मत है। प्रकृति के नियम आगमन प्रणाली से अन्वेषित होते हैं, यह मान्यता बहुत हद तक भ्रामक है। कहना यह चाहिए कि अनुभव सामग्री यानी अनुभूत घटनासंहतियाँ, प्रशिक्षित वैज्ञानिक को उपयुक्त परिकल्पनाओं या संभाव्य प्राकृतिक नियमों के न्यूनाधिक शक्तिवाले संकेत भर देती हैं।
ऊपर हमने इस बात पर बल दिया कि नई तर्कप्रणालियों के विकास के साथ साथ तर्कशास्त्रीय सिद्धांतों के स्वरूप में भी न्यूनाधिक परिवर्तन होता है। इस द्ष्टि से तर्कशास्त्र एक गतिशील विद्या है; वह स्थिर, शाश्वत नियमों का संकलन या उल्लेख मात्र नहीं हैं। वस्तुत: विभिन्न भौतिक, जैव एवं समाजशास्त्रीय विज्ञों के विकास ने तर्कशास्त्र को बहुत प्रभावित किया है। अनुमान और तर्कना की प्रणालियों तथा नियमों से अधिक आज विभिन्न विद्याओं की अन्वेष्ण प्रक्रिया अनुशीलन का विशिष्ट विषय बन गई है। उक्त प्रक्रिया की शास्त्रीय जाँच को रीतिमीमांसा (मेथडॉलॉजी) कहते हैं।
यहाँ एक ज्यादा महत्व का स्पष्टीकरण अपेक्षित है। अनुभव एवं चिंतन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारी तर्कनाप्रक्रिया एक ही कोटि की नहीं होती। विज्ञान और गणित में तर्कना के तरीके एक प्रकार के हैं। साहित्यसमीक्षा अथवा नैतिक निर्णयों के क्षेत्र में भी ये तरीके काफी भिन्न हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि कला समीक्षा, साहित्य मीमांसा, नीतिशास्त्र आदि के क्षेत्रो में परीक्षकों के स्वमतस्थापन एवं परमतखंडन की प्रणलियाँ एक ही सी नहीं होतीं। वे काफी भिन्न भी हो सकती हैं और होती हैं। इस स्थिति को निम्नांकित शब्दों में भी प्रकट किया जाता है: गुणत्मक दृष्टि से भिन्न प्रत्येक कोटि के विषय-विवेचन (डिस्कोर्स)के नियामक मानदंड अथवा नियम बहुत कुछ अलग होते है; अर्थात चिंतन और विवेचन के प्रत्येक क्षेत्र का तर्कनाशास्त्र एक निराली कोटि का होता है। इससे अनुगत होता है कि सब प्रकार के चिंतनविवेचन का नियामक कोई एक तर्कशास्त्र नहीं है।
प्रतीकाश्रित (प्रतीकमूलक) तर्कशास्त्र
बीसवीं सदी में परंपरागत अरस्तू के तर्कशास्त्र से भिन्न प्रतीक मूलक या प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र का विकास हुआ है। कुछ परीक्षकों की द्ष्टि में यह एक बड़ी घटना है। इस नये तर्कशास्त्र को गणितनिष्ठ तर्कशास्त्र भी कहते हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में दो अंग्रेज गणिताज्ञों ने तर्कशास्त्र के इस नये रूप का आधार खड़ा किया; ये दो गणितज्ञ थे -- आगस्टस डि मार्गन तथा जार्ज बूल। इनका मुख्य अन्वेषण यह था कि अरस्तू के तर्कशास्त्र में जिन अनुमितियों का उल्लेख है, उनमें कहीं अधिक कोटियों की प्रामाणिक अनुमितियाँ हैं। अरस्तू के न्याय-वाक्य (सिलाजिज्म) में प्रकट की जाने अनुमितियों का आधार सिद्धांत वर्गसमावेश का नियम हैं। वैसे अनुमान का प्रसिद्ध उदाहरण है: सब मनुष्य मरणशील है; यहाँ सुकरात मनुष्य है; इसलिए सुकरात मरणशील है यहाँ मरणशीलता मनुष्य नाम के वर्ग का व्यापक धर्म है; वह उस वर्ग में समावेशित सुकरात का भी धर्म है। मार्गन और बूल ने यह पता चलाया कि अनुमिति का असली आधार विशेष कोटि के संबंध होते है, वर्ग समावेश का नियम इन कई संबंधकें में से एक के अंतर्भूत है। अत: उस नियम को अनुमिति का स्वतंत्र सिद्धांत नहीं मानना चाहिए। दूसरे, ऐसी अनेक अनुमितियाँ होती हैं, जो न्यायवाक्य के रूप में प्रकट नहीं की जा सकती। उदाहरण- 'क की अवस्था ख से अधिक है और ख की अवस्था ग से अधिक है, इसलिये क की अवस्था ग से अधिक है।' प्रसिद्ध दार्शनिक एफ्० एच्० ब्रैडले (१८४६-१९२४) ने भी ऐसी अनुमितियों का संकेत किया है, जो अरस्तू के न्यायावाक्य में निवेशित नहीं हो सकतीं।
हमने कहा है कि नवीन विचारकों के अनुसार अनुमिति का आधार वाक्यों के बीच रहनेवाले कुछ संबंध हैं। स्वयं 'संबंध' की अवधारणा को परिभाषित करना कठिन है। संबंधों का वर्गीकरण कई तरह से होता है। कुछ संबंध दो पदों या पदार्थो मे बीच होते हैं, कुछ तीन के, इत्यादि। कोई पदार्थ संबंधग्रस्त है, यदि उसके बारे में कुछ कथन करते हुए किसी दूसरे पदार्थ का उल्लेख आवश्यक हो। 'राम सीता का पति है', 'राजा ने अपने शत्रु को जहर दे दिया', 'देवदत्त ने विष्णुदत्त से दस हजार रुपए लेकर मकान खरीद लिया;' - ये वाक्य क्रमश: द्विमूलक, त्रिमूलक एवं चतुर्मूलक संबंधों को प्रकट करते हैं। एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार संबंध सम (सिमेट्रीकल), विषम (अनसिमेट्रिकल), एवं अ-सम-विषम (नॉन्-सिमेट्रीकल) तीन प्रकार के होते हैं। जो संबंध करते है; यथा - राम श्याम का भाई है; देवदत्त विष्णुदत्त का हमउम्र है या सहपाठी है; इत्यादि। विषम संबंध राम सीता का पति है। अ-सम विषम- देवदत्त विष्णुदत्त को प्यार करता है।
एक प्रकार के संबंध उत्पलवी संबंध कहलाते है; उससे भिन्न अनुत्प्लवी। 'अवस्था में बड़ा होना' ये सब उत्प्लवी (ट्रांजिटिव) संबंध हैं। यदि क ख से बड़ा, या लंबा या भारी है;और ख ग से तो यह सिद्ध होता है क ग से बड़ा या भारी है। अनुत्प्लवी संबंध- क ख का पिता है और ख ग का; यहाँ यह सिद्ध नहीं होता कि क ग का पिता है। जहाँ हम देखते हैं कि उत्पवी संबंध अनुमिति का हेतु बन जाता है। अरस्तु द्वारा प्रतिपादित वर्ग समावेश का सिद्धांत वस्तुत उत्प्लवी संबंध का दूसरा उदाहरण आक्षेप संबंध (इंप्लीकेशन) है। यदि वाक्य य वाक्य र को आक्षित करता है, और र वाक्य ल को, तो य, ल को आक्षिप्त करता है।
प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र की एक अन्य विशेषता यह है कि वहाँ वाक्यों और उनके संबंधों को प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया जाता है। अनुमिति के आधार वाक्यों के विशिष्ट संबंध है; ये संबंध वाक्यों के आकार (फॉर्म) पर निर्भर करते हैं, न कि उनके अर्थों पर। फलत: वाक्यों के अर्थों का विचार किए बिना, उनके आकारों में अनुस्यूत संबंधों को, और उनपर आधारित अनुमितियों को, प्रतीकों की भाषा में प्रकट किया जा सकता है। प्रतीकित होने पर विभिन्न संबंधों को संक्षेप में प्रकट किया जा सकता है। यह प्रक्रिया गणित की श्लाघनीय विशेषता है। गणित शास्त्र की उन्नति का एक प्रधान हेतु संख्याओं को दशमलव विधि (डेसमिल सिस्टम) से लिखने का आविष्कार था यह आविष्कार भारतवर्ष में हुआ। अंकों को लिखने की रोमन प्रणाली में दस, पचास सौ आदि संख्याओं के लिए अलग अलग संकेतचिन्ह है; इसके विपरीत प्रचलित दशमलव प्रणाली में अंकविशेष का मूल्य उसकी स्थिति के अनुसार होता है, और सिफ नौ अंकों तथा शून्य-चिह्न, की मदद से किसी भी संख्या को प्रकट किया जा सकता है। प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र में वर्गों, वाक्यों आदि को प्रतीकों में प्रकट करके उनसे संबद्ध अनुमितियों के नियम प्रतिपादित किए गए हैं। वर्गकलन (कैलकुलस् आफ् क्लासेज) में वर्गों के पारस्परिक संबंधों, विरोध आदि के नियम बतलाए गए हैं। इसी प्रकार वाक्यसंबंधों, विरोध आदि के नियम बतलाए गए हैं। इसी प्रकार वाक्यकलन (कैलकुलस ऑव प्रापोजीशंस) में वाक्यसंबंधों के नियामक सिद्धातों या नियमों का उल्लेख रहता है। अरस्तू के न्यायवाक्य में सन्निहित सिद्धांत उक्त नियमों में से ही एक है। इससे प्रकट है कि प्रतीकनिष्ठ तर्कशास्त्र का अनुमितिक्षेत्र अरस्तू के तर्कशास्त्र की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ