तस्बीह
तस्बीह भारत, पाकिस्तान और फारस के इस्लाम धर्मा वलंबियों द्वारा खुदा के ९९ नामों के स्मरणर्थ उपयोग में आनेवाली साधारणतया ९९ गुरियों की माला या सुमिरनी। इसकी अंतिम गुरिया जिसे हिंदू माला में 'सुमेरु कहते हैं, इमाम कहलाती है जो 'अल्लाह' के नामजप के लिये प्रयुक्त होती है। तस्बीह में तीन भाग होते हैं और प्रत्येक के ३३ दाने रंग तथा आकार प्रकार में एक दूसरे से भिन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त १०१ और ३३ गुरियों की तस्बीह भी काम में आती है। इसके सहारे खुदा के नामों का स्मरण, 'तस्बीह' और 'तहमीद' का जप सबाब (पुण्य) देता तथा गुनाह (पाप) का क्षय करता है। तस्बीह के दाने अनेक पदार्थों के दाने उपयोग में आते हैं। काठ की मनियाँ प्राय: सभी संप्रदायों में प्रयुक्त होती हैं। मक्का के बने मिट्टी के दाने अत्याधिक मूल्यवान् समझे जाते हैं। हज को जानेवाले तीर्थयात्री बहुधा इसे लाते हैं। शिया लोग कर्बला की मिट्टी से बने दानों को अत्यधिक महत्व देते हैं। अरब के सुन्नी भारत में भाँग के बीज की बनी गुरिया उपयोग में लाते हैं। इसके अतिरिक्त ऊँट की हड्डी, खजूर की गुठली, तथा कीमती पत्थर भी काम में आते हैं। फकीर लोग शीशे की विभिन्न रंगों की गुरिया पिरोकर तस्वीर बनाते हैं।
इस्लाम धर्म में तस्बीह के प्रचलन का इतिहास अनिश्चित है। कहते हैं, बौद्धधर्म के प्रभावस्वरूम इसका प्रचलन हुआ किंतु प्राचीन साहित्य में इसकी आदिम परंपरा के संकेत इस मत को अमान्य ठहराने के लिये पर्याप्त हैं। ई० पू० ९वीं शताब्दी की एक परंपरा के अनुसार सौ सौ तकबीर, तहलील और तस्बीह की गणना के लिये पत्थरों का उपयोग किया जाता था।
टीका टिप्पणी और संदर्भ