तापन और संवातन

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तापन और संवातन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 335-338
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विश्वंभरप्रसाद गुप्त

तापन और संवातन युगों से भोजन और जीवन के साथ साथ तापन की समस्या भी मनुष्य के मस्तिष्क को उलझाती रही है। शीत प्रदेशों में तो इसका महत्व है ही, अनेक उष्ण प्रदेशों में भी शीतकाल में तापन अनिवार्य हो जाता है। किंतु भोजन की भाँति इसके लिये मनुष्य को बाहर की ओर नहीं देखना पड़ा, क्योंकि यह शरीर स्वयं ही ऊष्मा का स्रोत है और यदि शरीर से निकलनेवाली ऊष्मा को सुरक्षित रखने के लिये आवश्यक उपाय कर लिए जाएँ तो मनुष्य की तापन समस्या हल हो जाती है।

तापन की सिद्धांत

मनुष्य उष्ण रक्तवाला प्राणी है। इसके शरीर का ताप अपेक्षाकृत ऊँचा (लगभग ३७० सें०) रहता है। शरीर को बनाए रखने कि लिये भोजन ईधंन का काम देता है। जब बाहर का ताप कम रहता है, तब शरीर से ऊष्मा का विकिरण होता रहता है। एक औसत दर्जे का स्वस्थ शरीर इतनी ऊष्मा निकालता है, जितनी १०० वाट का बिजली का बल्ब। कपड़ो से यह ऊष्मा हानि कुछ रूक जाती है। बहुत अधिक कपड़े पहनने से ऊष्मा की हानि उस गति से नहीं होती, जिस गति से वह उत्पन्न होती है। फलत: शरीर को कष्ट होता है, उसका ताप बढ़ जाता है और गड़बड़ी आ जाती है। यदि कपड़े बहुत कम पहने जाएँ तो जितनी ऊष्मा उत्पन्न होती है, उससे अधिक की होनि होती है, फलत: शरीर ठंढा होता जाता है और कष्ट होता है। वास्तव में किसी भी दशा में मानव शरीर को बाहरी ऊष्मा पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अनेक परिस्थियो में उन कमरों को ही उष्ण रखने की आवश्यकता होती है जो मानव के निवासस्थान है, ताकि शारीरिक ऊष्मा की हानि उतनी ही हो जितनी शरीर में उत्पन्न होती है।

अनुभव से ज्ञात हुआ है कि साधारण कपड़े पहने हुए सामान्य रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लिये घुटने भर ऊँचाई पर (फर्श से लगभग ४५ सेंमी. ऊपर) १८.४० सें. का ताप सुखप्रद होता है। अनेक सामान्य तापन पद्धतियों द्वारा इतना ताप लाने में सिर के बराबर ऊँचाई पर (फर्श के लगभग १.५० मीटर ऊपर) ताप लगभग २१० सें. हो जाता है। इतने पर भी शरीर से ऊष्मा की हानि होती ही रहती है, किंतु इतनी नहीं कि शरीर अत्याधिक शीतल हो जाए।

तापन व्यवस्था

इसका प्रारंभिक रूप आज भी अनेक अविकसित स्थानों में मिलता है, जहाँ गुफा या तंबू के भीतर एक गढ़े में आग रख दी जाती है। धीरे धीरे खोज हुई और छत में या दिवार के एक छेद बनाया जाने लगा, जिससे धुआँ बाहर निकल जाए। इस प्रकार चिमनी और अँगीठी का जन्म हुआ। फिर धातु के स्टोव प्रयोग में आए, जो कमरे के बीच में भी रखे जा सकते थे और धुआं नलियों द्वारा चिमनी तक पहुँचाया जाता था। धीरे धीरे निर्धूम ईधंन के रूप में लकड़ी के कोयले की खोज हुई और यह साधरण तापन में बहुत काम आया। भूमध्यसागर के तट पर और एशिया होते हुए चीन, जापान तक इसका व्यापक उपयोग हुआ। दक्षिणी इटली में छिछली सिगड़ियों में, जिन्हें आवश्यकतानुसार एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जा सकते हैं, यही जलाया जाता है।

इस स्थानीय तापन व्यवस्था के अतिरिक्त प्राचीन रोमवासियों के तथा अन्य सभ्य जातियों ने एक केंद्रीय तापन व्यवस्था का भी विकास किया था। बड़ी बड़ी इमारतों के फर्शों, दीवारों और छतों में धूमनालियाँ बनी होती थीं और अग्निदाह से उत्पन्न गैसें उनमें घूमती थीं। इनसे विकिरण द्वारा इमारत गर्म होती थी। इनके उदाहरण रोम में कराकला के स्नानागारों में तथा इंग्लैड में बाथ के रोमन स्नानागारों में अब भी दिखाई देते है। सिद्धांत रूप में यह व्यवस्था आधुनिक तापन में भी अपनाई गई है और रूस के अनेक भागों में तो बिना किसी परिवर्तन के ही चालू है।

तापन व्यवस्था मे मूल तत्व

तापन की अनेक पद्धतियों में चार प्रक्रियाएँ एक दूसरे के बाद होती हैं। पहली है ऊर्जाविमोचन, जो प्रय: भट्ठी, अग्निधान या बॉयलर (boiler) में होता है। ईधंन के जलते समय उसमें निहित रासायनिक ऊर्जा मुक्त होकर ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है, जिससे कोई प्रवाही पदार्थ, जैसे हवा, भाप या पानी गर्म किया जाता है। दूसरी प्रक्रिया में, ऊष्मा लिए हुए प्रवाही पदार्थ चलकर उस स्थान पर पहुँचता है, जहाँ ऊष्मा मुक्त होती है। तीसरी प्रक्रिया में, उष्मा प्रवाही पदार्थ से मुक्त होकर कमरे की वायु या किसी उपकरण, जेसे उष्मा विकिरक या तापानुकूलक आदि के बाहरी तल, में पहुँचती है। चौथी प्रक्रिया ऊष्मा वितरण की होती है, जिससे वह रीति से कमरे में सब जगह फैल जाए।

केंद्रीय तापन की आधुनिक पद्धति

एक केद्रीय स्थान पर ऊष्मा उत्पन्न करके उसे बड़ी बड़ी इमारतों में, या कई इमारतों में, आवश्यकतानुसार सभी स्थानों तक ले लाना केंद्रीय तापन कहलाता है। आजकल यह प्राय: दो प्रकार से संपंन्न होता है: (क) अप्रत्यक्ष अथवा उष्ण वायु द्वारा, और (ख) प्रत्यक्ष, जिसमें वाष्प या गर्म जल द्वारा ऊष्मा निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचती है, जहाँ विकिरक उसे बिखेरते हैं।

(क) उष्ण-वायु-तापन में संवाहन द्वारा ऊष्मा निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचती है। एक बड़ी भट्ठी में, जो प्राय: तहखाने में होती है, चित्र:Image.jpg एक पंखे द्वारा उष्ण वायु कमरे में भेजी जाती है तथा ठंडी वायु गर्म होने के लिये भट्ठी में लौट आती है। क. उष्ण वायु का आगम, ख. ठंडी वायु की झंझरी, ग. उष्ण वायु का मार्ग, घ. ठंडी वायु की वापसी, च. पंखा तथा वायु को छाननेवाला उपकरण और छ. उष्ण वायु की भट्ठी।

वायु गर्म की जाती है। उष्ण वायु उठकर बड़े बड़े नलों में होती हुई तापानुकुलकों तक पहुँचती है, जो उसे कमरों में छोड़ते हैं। कभी कभी धौकनियाँ या पंखे भी प्रयुक्त होते हैं, ताकि वायु की गति बढ़ जाए और उसका वितरण एक सा हो। सस्ती होने के कारण निजी मकानों में बहुधा यही पद्धति अपनाई जाती है। यद्यपि यह उष्णजलतापन, या वाष्पतापन जैसी प्रभावोत्पादक नहीं, फिर भी यह श्ध्रीातापूर्वक कमरा गरम करने के लिये उत्तम विधि है कुछ उष्ण वायुतापन संयंत्र गर्मी में शीत वायु भी दे सकते है।

संयुक्त राज्य (अमरीका) तथा कैनाडा में इस पद्धति का बहुत प्रचलन है, क्योंकि वहाँ अत्यधिक शीत के कारण पानी या भाप जम जाने का भय रहता है।

(ख) वाष्प या उष्ण-जल-तापन-पद्धति प्राय: सभी बड़ी या औसत दर्जे की इमारतों में अपनाई जाती है। उष्ण-जल-तापन शायद चित्र:Image1.jpg परिसंचरण तत्र द्वारा इस प्रणाली में जल संचरित होता है। उष्ण जल के प्रसार के लिये स्थान देना आवश्यक रहता है। क. प्रसार टंकी, ख. वायु का वाल्व, ग. वापसी राइजर (riser), घ. विकिरण या संनयनक, च. संभरण राइजर, छ. संभरण की मुख्य नली, ज. वापसी की मुख्य नली तथा झ. उष्ण जल का बॉयलर (boiler)।

१८वीं शती ई० के आरंभ में फ्रांस में आरंभ हुआ था और सर्वप्रथम सक पादप-गृह (green house) में इसका उपयोग किया गया था। वाष्प तापन का व्यावहारिक रूप १७८४ ई० में जेम्स वाट ने खोजा था। और १७९१ ई० में हैलिफैक्स के एक अन्वेषक हॉयल ने अपनी विधि पेटेंट करवाई। बॉयलर, नल और विकिरक इस पद्धति के मुख्य अंग हैं। नल व्यवस्था, विकिरक और मजदूरी आदि की लागत अधिक होने से यह पद्धति उष्ण वायु पद्धति की अपेक्षा महँगी पड़ती है, किंतु उससे अधिक विश्वसनीय भी है। विकिरक ऐसे स्थानों पर रखने से जहाँ तापहानि सर्वाधिक होती है, इस पद्धति से ऊष्मा का वितरण अपेक्षाकृत अधिक एक सा होता है।

वाष्प-तापन-संयंत्र में घूमनेवाली वाष्प का ताप १००° सें० हो सकता है, किंतु यदि नलों के भीतर हवा का दबाव कम कर दिया जाए तो इससे कम ताप मर भी वाष्पन संभव है। यह आंशिक निर्वातन पंप द्वारा संपन्न होता है। ऊष्मा वितरित हो जाने पर कुछ भाप जल बन जाती है, और संयंत्र में आंशिक निर्वात बना रहता है, जिससे क्रम चालू रहता है। इस प्रकार लगभग ८५० सें० तक के कम ताप पर ही भाप बनती रहती है।

विकिरक संचालन द्वारा बहुत कम ऊष्मा वितरित करते है, संवाहन द्वारा भी थोड़ी ही ऊष्मा वितरित होती है। मुख्यतया विकिरण द्वारा ही अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है। निसृत ऊष्मा की मात्रा विकिरकों के आकार तथा उनके खुले परिमाण पर निर्भर होती है। ये बहुधा चित्र:Image2.jpg राइजर से होती हुई जल की उष्ण भाप विकिरक में जाती है तथा संघनित जल उसी नली से बॉयलर में वापस आता है। क. राइजर, ख. वायु का वाल्व (Valve), ग. विकिरक या संनयनक, घ. वायु का वाल्व, च. भाप की मुख्य नली, छ. जल का तल, ज. वापसी का नल तथा झ. भाप का बॉयलर।

ऐसी जगह रखे जाते हैं, जहाँ वायु का प्रवेश होता है, जैसे खिड़कियों के नीचे। इनके संपर्क में आकर वायु गर्म हो जाती हे ओर कमरे में ऊपर की ओर फैल जाती है।

विकिरण ऊष्मान

उपर्युक्त सामान्य विधियों से एक कठिनाई यह होती है कि छत के पास की हवा बहुत गर्म हो जाती है, जैसे घुटनों के पास ताप १५० सें० होगा तो सिर के पास २०० सें०, छत के पास २४० सें और फर्श के पास केवल १२० सें० ही। इतना कम ताप सुखद नहीं होता। यदि फर्श के पास का ताप बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता हे तो ऊपर की ओर कमरा इतना गर्म हो जाता है कि सुख नहीं मिलता। ऐसे तापांतर से बचने के लिये विकिरण ऊष्मन का आश्रय लिया जाता है। कमरे की किसी दीवार में विकिरक न लगाकर जल के नलों की कुंडली या नल पर्याप्त लंबाई में फर्श में ही दबा दिए जाते हैं। इनके भीतर गर्म जल बहने से फर्श गर्म हो जाता है और ऊष्मा विकीर्ण होती है।

विकिरण ऊष्मन से ऊष्मा बीच की वायु की विशेष गर्म करके सीधे व्यक्ति के शरीर पर पड़ती हैं, जो अधिक प्रिय होता है, और कमरे के भीतर तापांतर अधिक नहीं होता। फर्श के भीतर बनी नालियों में उष्ण वायु प्रवाहित करके भी ऐसा ही प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। गर्म जल या गरम वायु के नल फर्श के बजाय दीवारों या छतों में भी लगाए जाते हैं। यह व्यवस्था प्राचीन काल में केंद्रीय तापन के लिये रोमनों द्वारा बनवाए गए हिपोकास्ट जैसी ही है।

आधुनिक स्थानीय तापन

इसके लिये विशेष विकिरक कमरे में उपयुक्त स्थान या स्थानों पर रख दिए जाते हैं। कुछ विकिरक ऐसे होते हैं जिनमें गैस जलती हैं और एक पंखा गर्म हवा फैलाता रहता है। कुछ में धातु ही गैस से गर्म हो जाती है और ऊष्मा विकीरित करती है। कुछ ऐसे भी होते है, जिनमें पानी गर्म होकर भाप बन जाता है और उस भाप से भरी हुई नलियों की कुंडली से ऊष्मा विकीर्ण होती हे। बिजली का हीटर भी विकिरक है, जो बहुधा उपयोग में आता है। इसमें विद्युत्प्रतिरोध की तारकुंडली विद्युत्‌ शक्ति से गर्म हो जाती है और ऊष्मा विकीर्ण होती है।

स्थानीय ऊष्मा के अधिकांश स्रोत अपेक्षाकृत बहुत अधिक गर्म होते है। अत: उनसे विकीर्ण ऊष्मा बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त होती है। मध्वर्ती वायु अपेक्षाकृत शीतल रहती है। यह बहुत सुखद होता है कि व्यक्ति के पैर तो सुखोष्ण रहें, और उसका सिर शीतल। हाँ, इनमें यह दोष अवश्य है कि निकटवर्ती स्थान अधिक गर्म हो जाता है, जबकि उसी कमरे में दूरवर्ती शीतल ही बना रहता है।

तापन के लिये ईधन

ऊष्मा उत्पन्न के निमित्त ईधंन के रूप में प्राय: पत्थर का कोयला, कोक, तेल या गैस काम में आती है। बिजली के प्रयोग से सादगी और सफाई अधिक रहती है, किंतु लागत बढ़ जाती है। बिजली बहुधा स्थानीय तापन के लिये प्रयुक्त होती है, जहाँ थोड़ा स्थान शीघ्रतापूर्वक गर्म करना होता है। संयुक्त राज्य अमरीका में, जहाँ प्राकृतिक गैस मिलती है, वहाँ से वह नलों द्वारा सैकड़ों मील दूर तक ले जाई जाती है और तापन तथा उद्योग के काम आती है। जहाँ गर्म पानी के सोते अधिक होते हैं, वहाँ से गर्म पानी असंवाहित नलों द्वारा दूर दूर तक पहुँचाया जाता है। आइसलैंड में सोतों का गरम पानी ४० मील दूर तक तापन के काम आता है।

संवातन

किसी स्थान से गंदी वायु निकालकर वहाँ स्वच्छ वायु पहुँचाना संवातन कहलाता है। संवातन संबंधी विचारों में स्थान स्थान पर बहुत विविधता पाई जाती है। किसी देश में तो खुली हवा का प्रवेश, चाहे उससे ताप गिरता ही क्यों न हो, स्वास्थ्य और सुख के लिये अनिवार्य समझा जाता है इसके विपरीत जर्मनी में यह विशेष ध्यान रखा जाता है कि जाड़े में हवा कमरे में से होकर न आने पाए। फिर भी वहाँ इसका कोई दुष्प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय गैसरोधक कक्षों से यह अनुभव प्राप्त हुआ कि शरीर से विकीर्ण ऊष्मा दीवार आदि जिन तलों पर पड़ती है उनका क्षेत्रफल ही सुखानुभूति की कसौटी है, न कि वायु में मिश्रित कार्बन डाईऑक्साइड का अंश।

प्राकृतिक संवातन भीतर और बाहर के ताप के अंतर तथा वायु की दिशा और गति के अधीन है। इसपर यांत्रिक साधनों द्वारा, जैसे वायु का प्रवेश कराने या निकालनेवाले पंखों द्वारा, पूर्ण नियंत्रण रखना संभव है। सामान्य निवासभवनों के लिये इससे काम चल जाता हैं, किंतु खानों तथा कई प्रकार के कारखानों में, जहाँ काम आनेवाले पदार्थ, रंग, धुआँ, धातु, लकड़ी आदि, के कणों से मिश्रित धूल श्रमिकों की साँस के साथ प्रविष्ट हो सकती है, कानूनन्‌ यह आवश्यक है कि ऐसी धूल हटाने के लिये मूल स्रोत पर निकासपंखे लगाए जाएँ। ऐसी दशा में प्राकृतिक संवातन पर भरोसा न करके पूर्णतया कृत्रिम संवातन का प्रबंध किया जाता है।

वातानुकूलन

यद्यपि संवातन अपने आपमें वातातुकूलन नहीं है, फिर भी वायु का आवागमन वातानुकूलन की प्रमुख प्रक्रिया है। वातानुकूलन के संपूर्ण संयंत्र में धावन, आर्द्रीकरण, निर्धूमन, दुर्ग्रंधहरण आदि सभी सम्मिलित हैं। निवासस्थान को सुखद बनाने के अतिरिक्त अनेक उद्योगों में भी वातानुकूलन की आवश्यकता होती है, जैसे रूई की कताई के लिये वायु में कुछ आर्द्रता होनी चाहिए।

टीका टिप्पणी और संदर्भ