तापानुशीतन

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लेख सूचना
तापानुशीतन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 344
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बैजनाथ प्रसाद

तापानुशीतन (Annealing) काच, धातु, मिश्रधातु या किसी यौगिक को मृदु तथा कम भंगुर (brittle) बनाने, या उनके आंतरिक प्रतिबल (internal stress) को दूर करने, की विधि को तापानुशीतन या मृदुकरण कहते हैं। तापानुशीतन में धातुओं या मिश्रधातुओं को उनके गलनांक से नीचे किसी पूर्वनिश्चित ताप तक गर्म करके फिर धीरे धीरे ठंडा करते हैं। कई प्रकार की ढलवाँ वस्तुओं में से आंतरिक प्रतिबल को दूर करने के लिये तापानुशीतन की आवश्यकता पड़ती है। ढलवाँ धातु को जब उस ताप से, जिसपर वह ठोस होती है। ढलवाँ घातु को जब उस ताप से, जिसपर वह ठोस होती है, साधारण ताप तक ठंडा करते हैं, तब इसके सब भागों में तापसमान रूप से नहीं गिरता। इससे धातु के हर भाग में सिकुड़न एक समान नहीं होती। जब ऊपरी सतह बिल्कुल ठंडी होकर कठोर हो जाती है, तब भीतरी तहें उस समय भी अधिक ताप पर रहती हैं। इन तहों की सिकुड़न ठंडी सतह के कारण सीमित हा जाती है और जब ये ठडी होती हैं तो उनमें आंतरिक प्रतिबल पड़ जाता है। कभी कभी तो यह दोष बहुत ही अधिक हो जाता है। ढलवाँ धातु को धीरे धीरे गर्म कर तरल अवस्था मे लाते हैं, फिर धीरे धीरे गर्म कर तरल अवस्था में लाते हैं, फिर धीरे धीरे इस प्रकार ठंढा करते हें कि धातु के हर एक भाग में ताप समान रूप से गिरता रहे। इस तरह आंतरिक प्रतिबल को दोष दूर करते हैं। पिटवें या संघनित वस्तुओं में आंतरिक प्रतिबल का दोष दूर करते हैं। पिटवें या संघनित वस्तुओं में अतिरिक प्रतिबल की उत्पत्ति के विभिन्न कारण हो सकते हैं, किंतु इनको उपर्युक्त प्रकार से ही दूर किया जाता है।

काँच सदृश अचालकों में आंतरिक प्रतिबल इतना अधिक हो सकता है कि वह हानिकर हो जाए। काच की ऊपरी सतह ठंढी होकर ठोस हो जाती है, जब कि भीतरी तहें अधिक ताप पर रहती हैं। इससे आंतरिक प्रतिबल इतना अधिक हो जाता है कि काँच में दरारे पड़ जाती है। ऐसे अचालकों से आंतरिक प्रतिबल को दूर करने के लिए उनको इतने अधिक ताप पर गर्म करते हैं कि वे पिघलने लगें, फिर यह ध्यान में रखते हुए कि ठंडा होते समय ताप वस्तु के हर स्थान पर समान रूप से कम हो, बड़ी सावधानी से उनको धीरे धीरे ठंढा होने देते हैं।

ढलवाँ धातुओं पर शीतकार्य (cold work) से जो दोष आ जाते हैं, उनको तापानुशीतन द्वारा दूर करते हैं। ढलवाँ घातुएँ छोटे छोटे मणिभ समूहों से बनी होती हैं। पीटने तथा पालिश आदि करने से ये मणिभसमूह विकृत हो जाता हैं। इससे घातु कठोर हो जाती है। वैज्ञानिक बेली की राय में घातु की ऊपरी सतह इस अर्थ में कठोर हो जाती है कि पालिश आदि करते समय धातु की मणिभीय बनावट नष्ट हो जाती है। फिंच (Finch) तथा उसके सहयोगियों इलेक्ट्रॉन विवर्तन (Electron diffraction) की कार्यप्रणाली द्वारा इस तथ्य की पुष्टि की है।

ठंढी बनी (cold worked) धातु का जब तापानुशीतन किया जाता है तब धातु फिर मणिभीय रूप में आ जाती है और पहले से अधिक मृदु तथा तन्य हो जाती है। इन गुणों के कारण धातु पर और अधिक शीत कार्य किया जा सकता है। वह ताप, जिसपर फिर से मणिभ बनता है, प्रत्येक धातु के लिये भिन्न होता है। कुछ धातुओं, जैसे सीसे, में यह क्रिया साधारण ताप पर होती है। तापानुशीतन के कम ताप परअधिक ताप की अपेक्षा मणिभ बनने क गति मंद होती है और धातुओं को पूर्वावस्था में लाने के लिये अधिक शीत कार्य हुआ रहता है उतने ही कम ताप पर धातु के दाने रुक्ष हो जाते हैं। इससे धातुओं के यांत्रिक गुणों में कुछ ्ह्रास होता है, जिससे ये बहुत से कार्यो के लिये अनुपयुक्त हो जाती हैं।

धातुओं तथा बहुत सी मिश्रधातुओं को उनके गलनांक से साधारण ताप तक ठंडा करने पर उनके संघटन (constitution) या बनावट (structure) में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता है। यह प्राय: बहुरूपीय परिवर्तन, अथवा धातु की ठोस विलेयता में अंतर होने के कारण, होता है। ऐसी दशा में उस ताप के बीच जहाँ इस प्रकार के परिवर्तन होते हैं, ठंडा होने की गति का मिश्रधातुओं की बनावट तथा गुणों पर प्रभाव पड़ता है। इसका उत्तम उदाहरण कार्बन इस्पात है। 0.5 प्रतिशत कार्बन इस्पात को अगर लगभग 6500 सें० से धीरे धीरे ठंडा किया जाए तो यह साधारणत: मृदु होता है, किंतु इसी इस्पात को अगर 9000 सें० से अधिक ताप तक गरम करके एकाएक पानी में बुझाकर ठंडा किया जाए तो यह अत्यंत कठोर हो जाता है। ऐसी दशा में इस्पात को परिणमन सीमा ताप (transformation range temperature) से ऊपर तक गर्म करके फिर धीरे धीरे ठंढा करते हैं। ऐसा करने से बनावट में वे सभी परिर्वतन हो जाते हैं जो एकाएक ठंडा करने से लुप्त हो जाते हैं। इस्पात में विशेष धातुओं को मिलाने से वह ताप जिसपर ये परिवर्तन होते हैं तथा परिर्वतन की गति अधिक बदल जाती है। उदाहरणार्थ अगर इस्पात में टंग्स्टन की प्रचुर मात्रा (14-18%) मिला दी जाए तो तापानुशीतन ताप अधिक हो जाता है ओर इस मिश्रधापतु से जो हथियार बनते हैं उनमें धार (cuting edge) 7000 सें० तक रहती है, जबकि इस ताप पर कार्बन इस्पात इसके लिये व्यर्थ हो जाता है।

अलोह धातुओं तथा मिश्रधातुओं के गुणों में तापानुशीतन द्वारा परिवर्तन करना दिन प्रतिदिन महत्वपूर्ण होता जा रहा है। ऐल्यूमिनियम की कुछ मिश्रधातुएँ, विशेष रूप से वे जिनमें ताप बढ़ाने से एक धातु की दूसरे धातु में विलेयता बढ़ती है, तापानुशीतन द्वारा अधिक प्रभावित होती हैं। ड्यूरैल्यूमिन (Duralumin) इसका अच्छा उदाहरण है। इस मिश्रधातु का सर्वोततम यांत्रिक गुण इसको 4800 सें० पर जल में एकाएक बुझा देने से प्राप्त होता है। ऐसा करने से एक मृदु मिश्रधातु मिलती है, जो साधारण ताप पर रहते रहते कठोर हो जाती है। ड्यूरैल्यूमिन का तापानुशीतन 3500 और 4000 सें० के बीच गरम करने तथा उसके बाद धीरे धीरे ठंढा करने से होता है। ऐसा करने से इस मिश्रधातु पर फिर जीर्णन (ageing) का प्रभावनहीं पड़ता।

तापानुशीतन वायुमंडल से भी प्रभावित होता है। अगर धातु या मिश्रधातु को साधारण वायुमंडल में गर्म करते हैं जो उसका थोड़ा बहुत ऑक्सीकरण अवश्य हो जाता है, अत: उसका किसी प्रकार के कार्य में उपयोग करने के पहले साफ करना बहुत आवश्यक हो जाता है। इसलिए अब तापानुशीतन उदासीन या अवकारक (reducing) वायुमंडल में करते हैं। इससे वस्तु की सतह में काफी चमक रहती हे। इस प्रकार की क्रिया को भव्य (bright) वायुमंडल तापानुशीतन कहते हैं। किस गैस का वायुमंडल तापानुशीतन के लिये उपयुक्त होगा, यह वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है।

रेडियो रश्मियों, न्यूट्रॉन और दूसरे द्रुत गतिवाले कणों से अगर किसी ठोस या तरल पदार्थ पर आक्रमण करते हैं, तो उसकी व्याकृति तथा मणिभीय बनावट विकृत हो जाती है। इस दोष को भी तापानुशीतन द्वारा दूर करते हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ