ताप उत्क्रमण
ताप उत्क्रमण
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 334-335 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
ताप उत्क्रमण घरती पर की वायु जैसे जैसे १० से १५ किमी० तक ऊपर उठती है, वैसे उसका ताप क्रमश: कम होता जाता है। यह सामान्य नियम है, पर बहुधा देखा जाता है कि वायुमंडल में वायु के कुछ ऐसे स्तर पाए जाते हैं, जिनमेंऊँचाई के कारण ताप कम होने के स्थान पर बढ़ता है। ताप के ऐसे स्तरों को ताप का उत्क्रमण या केवल उत्क्रमण (Inversion of Temperature) कहते हैं। ऊँचाई के कारण ताप के कम होने की दर को क्षयदर (lapse rate) कहते है। ऊँचाई के कारण जब ताप कम होने के स्थान पर बढ़ता है, तब क्षयदर ऋणात्मक होती है। मौसम विज्ञान संबंधी निबंधों में वायु के ऐसे स्तरों को भी उत्क्रमण कहते हैं, जिनके क्षयदर धनात्मक होने पर भी ऊपर और नीचे के वायुस्तरों से कम हो।
उत्क्रमण की माप (१) स्तर की मोटाई, (२) तापवृद्धि की दर और (३) स्तर के ताप की समस्त वृद्धि से की जाती है। ताप की समस्त वृद्धि को उत्क्रमण का परिमाण (magnitude) कहते हैं। यदि ताप की वृद्धि बड़ी तीव्रता से हो तो उसे तीक्ष्ण उत्क्रमण (Sharp inversion) और तीक्ष्ण तथा वृहत् उत्क्रमण (Large inversion) और तीक्ष्ण तथा वृहद दोनों हो तो उसे प्रबल उत्क्रमण (Strong inversion) कहते हैं।
वायुमंडल के १० से लेकर १५ किमी० तक से नीचे के भाग को, जहाँ क्षयदर सामान्य घनात्मक होती है, क्षोभमंडल (Troposphere) कहते हैं। क्षोभमंडल में उत्क्रमण बहुत रहता है। समान्यतया कम ऊँचाई के कुछ क्षेत्रों में उत्क्रमण प्राय: सदा ही उपस्थित रहता है। क्षोभमंडल के ऊपर के भाग को समतापमंडल (Stratosphere) कहते हैं। यहाँ का ताप सामान्यत: स्थायी रहता हैं, अथवा ऊँचाई में बहुत ही धीरे धीरे बढ़ता है। अधिक ऊँचे तलों पर यह अधिकता से बढ़ता है। १६ से लेकर ५० किमी० तक के बीच विभिन्न तीक्षणता के स्थाई उत्क्रमण होते हैं।
पृथ्वी ही सतह पर जो उत्क्रमण होता है उसे भू-उत्क्रमण कहते हैं। उस उत्क्रमण को उच्च उत्क्रमण (High inversion) कहते हैं जिसमें स्तर के नीचे की वायु में ताप की कमी सामान्य होती है।
मौसम से उत्क्रमण का संबंध
मेघ के रूप, आकार, अवक्षेपण और दृश्यता के अध्ययन में उत्क्रमण का महत्वपूर्ण योग है। क्षयदर पर ही वायु की ऊर्ध्व गति, विशेषत: उसका मिश्रण निर्भर करता है। जब वायु ऊपर उठती है, तब प्रसार के कारण उसमें शीतलता उत्पन्न होती है। यदि यह शीतलता क्षयदर से अधिक है तो आरोही वायु पार्श्ववर्ती है वायु से ठंढी और भारी हो जाती है और उसपर बल पड़ता है, जिससे वह पूर्वावस्था में आ जाए। उत्क्रमण के कारण उर्ध्व गति पर प्रतिरोध होता है ओर वायु का ऊपर उठना रुक जाता है। उत्क्रमण वस्तुत: ढक्कन का काम करता है। यदि उत्क्रमण अधिक प्रखर है तो मेघ, धरती की तप्त वायु, धूल और धुआँ उत्क्रमण से ऊपर नहीं उठते और मेघ ऐसे ताप पर नहीं पहुँचता जहाँ पानी की बूँद बनकर वर्षा के रूप में नीचे गिर सके। मेघ के अभाव में भी धूल और धुएँ के कारण उत्क्रमण के नीचे की वायु इतनी ठंडी हो जाती है कि उससे मेघ या कुहरा बनता है। उत्क्रमण वस्तुत: नीचे की आर्द्र वायु और ऊपर की अनार्द्र वायु की सीमा बन जाता है।
उत्क्रमण का दूसरा प्रभाव ताप के दैनिक परिवर्तन पर पड़ता है। दिन में वायु तप्त हो जाती है। ऐसा धरती की सतह के संपर्क से होता है। सौर विकिरण का वायु के ताप पर सीधे कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह धरातल को तप्त कर देता है। धरातल ही सौर विकिरण को अवशोषित करता है और उससें तप्त हो जाता है। तप्त धरातल संवहन (conduction) और संनयन (convenction) द्वारा वायु को गर्म करता है। संवहन उत्क्रमण से ऊपर नहीं जाता। उत्क्रमण ही संवहन की ऊपरी सीमा है। यदि उत्क्रमण ऊँचाई पर है तो वायु का स्तर मोटा होगा और अधिक वायु के गरम होने के कारण ताप की वृद्धि कम होगी।
शीतल तल के संस्पर्श से वायु के ठंडी होने से भूत्क्रमण होता है। भूत्क्रमण को रात्रयुत्क्रमण, या विकिरण उत्क्रमण भी, कहते हैं। स्वच्छ रात्रि में विकिरण से धरातल ठंढा हो जाता है। यह आकाश में सूर्य नहीं है, तो पृथ्वी से ऊपर की और विकीर्ण ऊष्मा, वायु से प्राप्त ऊष्मा से अधिक होती है। इससे उत्क्रमण की मोटाई बढ़ जाती है और परिमाण में कमी आ जाती है। यदि उत्क्रमण के नीचे की वायु ओसांक तक ठंढी हो जाए, तो उसने कुहरा बनता है। यदि पवन तेज चलता है, तसे प्रक्षुष्म मिश्रण से भूत्क्रमण बिल्कुल लुप्त हो जा सकता हैं। इससे रुद्वोष्म क्षयदर की स्थापना हो जाती है और उत्क्रमण का ऊपरी भाग तीक्ष्ण हो जाता है। इस दशा में यदि संघनन होता है तो कुहरा या स्तरीमेघ ऊपर तक चला जाता है, जिसे उच्च कुहरा या स्तरीमेघ कहते हैं।
भूत्क्रमण के परिणाम पर स्थलाकृति का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि भूखंड गोलाकार या पहाड़ है, तो उच्च भूखंड पर बनी ठंडी वायु नीचे की ओर बढ़ती हुई, नीची भूमि के ऊपर वृहत् और अधिक मोटा उत्क्रमण बनाती है। ऊँचे भाग पर ऐसा बहुत अल्प, या बिल्कुल नहीं होता। नीचे की गर्मी के कारण दिन में भूत्क्रमण नहीं होता, क्योंकि घरती के विकिरण से वायु गर्म हो जाती है और वायु के ऊपर का क्षेत्र संवहन और संनयन से गर्म हो जाता है। जोड़े कि दिनों में मध्य अक्षांश पर रात की ठंडक इतनी हो जाती है कि दिन में वायु को इतना गर्म नहीं कर सकता और उससे भूत्क्रमण दिन दिन बढ़ता जाता है। ऐसी दशा में वहाँ रात और दिन कुहरा छाया रहता है। ऐसा कुहरा कैलिफोर्निया और मध्य यूरोप की घाटियों में देखा जाता है। उत्तर धुव की ओर बढ़ने पर जाड़े में धूप बिलकुल नहीं होती और धरती बहुत समय तक ठंडी रहती है। इससे उत्क्रमण का परिमाण बहुत बढ़ जाता है और वह बहुत मोटा और विस्तृत हो जाता है। ऐसे उत्क्रमण को उत्तर ध्रुवीय उत्क्रमण कहते हैं। कुछ क्षेत्रों के ६८ प्रतिशत भागों में उत्क्रमण होता है और उसकी मोटाई पर्याप्त, औसतन १७२० मीटर तक, की होती है।
प्रक्षोभन उत्क्रमण
तेज चलती हुई वायु के प्रक्षुब्ध मिश्रण से भी उत्क्रमण होता है। प्रक्षुब्ध मिश्रण से स्तरी कपासी, मेध बनते हैं। ऐसे मेघ से कई दिनों तक आकाश मेघाच्छदित रह सकता है, पर उससे वर्षा नहीं होती और यदि होती भी है तो बहुत ही कम या केवल बूँदा बाँदी।
अवसाद उत्क्रमण
वायु के स्तर के नीचे खसक आने को अवसाद (Subsidence) कहते हैं, जब वायु एक साथ नीचे उतरती हैं, तब दबाव की वृद्धि होती है, जिससे वायु के स्तर का संपीडन होता है। संपीडन की ऊष्मा ऊपरी भाग के लिये निचले भाग से अधिक होती है, इससे ताप की क्षयदर कम हो जाती है। जिससे ऊपरी भाग और गिर जाता है। संपीडन इतना हो सकता है कि निचले भाग का ताप उच्चतर हो जाए। इससे उत्क्रमण उत्पन्न होता है। कुछ विशेष स्थितियों में प्रतिचक्रवात में अवसाद होता है। प्रतिचक्रवात के क्षेत्र हैं शीतकाल में महाद्वीप के उत्तरी क्षेत्र और सारे वर्ष उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र। इन्हीं क्षेत्रों में अवसाद उत्क्रमण होता है। महाद्वीपीय प्रतिचक्रवात के उत्क्रमण गुंबद के काआर के होते हैं। ऐसे उत्क्रमण उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कभी कभी ही होते हैं। ऐसे उत्क्रमण का नाम पहले व्यापारिक वायु उत्क्रमण रखा गया था, पर पीछे देखा गया कि इनका व्यापारिक वायु से कोई संबंध नहीं हैं।
फ्रांट उत्क्रमण
जब ठंडी और उष्ण वायु साथ साथ रहती है, तब ठंडी वायु स्फान (wedge) सी फैलती है। इससे दानों प्रकार की हवाओं के बीच ढाल सीमा बनती है। इसे फ्राट कहते हैं। ऐसे फ्रांटवाले क्षेत्र में भी उत्क्रमण होता है। अन्य उत्क्रमणों से इसमें भेद यह है कि जहाँ अन्य उत्क्रमण क्षैतिज होते हैं वहाँ फ्राँट उत्क्रमण ढलानवाला होता है। फ्रांट उत्क्रमण की आर्द्रता साधरणतया ऊँची होती है और इसके ऊपर नीचे दोनों ओर मेघ रह सकते हैं। फ्रांट उत्क्रमण चक्रवात के निर्माण में बड़े महत्व का योग देता है। अनेक मौसमी घटाओं के घटित होने की व्याख्या उत्क्रमण से सरलता से हो जाती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ