थारू
थारू
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 469 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | स्वo धीरेद्रनाथ मजूमदार, सुरेंद्रकुमार श्रीवास्तव, रवींद्र जैन |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
स्रोत | स्वo धीरेद्रनाथ मजूमदार : दि फॉर्चून्स ऑव प्रिमिटिव ट्राइब्स (लखनऊ, 1944); सुरेंद्रकुमार श्रीवास्तव : दि थारूज (लखनऊ, 1959); रवींद्र जैन : फीचर्ज़् ऑव किंशिप इन ए थारू विलेज (लखनऊ, 1960) |
उपलब्ध | भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रवींद्र जैन |
थारू थारुओं का मुख्य निवास स्थान जलोढ़ मिट्टी वाला हिमालय का संपूर्ण उप-पर्वतीय भाग तथा उत्तर प्रदेश के उत्तरी ज़िले वाला तराई प्रदेश है, जिसका क्षेत्रफल 9208 वर्गमील है। इनकी जनसंख्या घटती बढ़ती रही है, जैसा पिछली तीन जनगणनाओं से स्पष्ट है जिनमें नैनीताल तराई के थारुओं की जनसंख्या सन् 1881 ईo सन् 1931 तथा सन् 1941 ईo में क्रमश: 15397, 20753 और 15495 पाई गई थी।
थारू शब्द की उत्पत्ति
थारू शब्द की उत्पत्ति प्राय: 'ठहरे', 'तरहुवा', 'ठिठुरवा' तथा 'अठवारू' आदि शब्दों में खोजी गई है। ये स्वयं अपने को मूलत: सिसोदिया वंशीय राजपूत कहते हैं। कुछ समय पूर्व तक थारू अपना वंशानुक्रम महिलाओं की ओर से खोजते थे। थारुओं के शारीरिक लक्षण प्रजातीय मिश्रण के द्योतक हैं। इनमें मंगोलीय तत्वों की प्रधानता होते हुए भी अन्य भारतीयों से साम्य के लक्षण पाए जाते हैं। आखेट, मछली मारना, पशुपालन एवं कृषि इनके जीवनयापन के प्रमुख साधन हैं। टोकरी तथा रस्सी बुनना सहायक धंधों में हैं।
वैवाहिक रीति-रिवाज
टर्नर (1931) के मत से विगत थारू समाज दो अर्द्धांशों में बँटा था जिनमें से प्रत्येक के छह गोत्र होते थे। दोनों अर्द्धांशों में पहले तो ऊँचे अर्धांशों में नीचे अर्धांश की कन्या का विवाह संभव था पर धीरे धीरे दोनों अर्द्धांश अंतर्विवाही हो गए। 'काज' और 'डोला' अर्थात् वधूमूल्य और कन्यापहरण पद्धति से विवाह के स्थान पर अब थारुओं में भी सांस्कारिक विवाह होने लगे हैं। विधवा द्वारा देवर से या अन्य अविवाहित पुरुष से विवाह इनके समाज में मान्य है। अपने गोत्र में भी यह विवाह कर लेते हैं। थारू सगाई को 'दिखनौरी' तथा गौने की रस्म को 'चाला' कहते हैं। इनमें नातेदारी का व्यवहार सीमाओं में बद्ध होता है। पुरुष का साले सालियों से मधुर संबंध हमें इनके लोकसाहित्य में देखने को मिलता है। देवर भाभी का स्वछंद व्यवहार भी इनके यहाँ स्वीकृत है।
समाज में स्त्री की स्थिति
थारू समाज में स्त्री के विशिष्ट पद की ओर प्राय: सभी नृतत्ववेत्ताओं का ध्यान गया है। इनमें स्त्री को संपत्ति पर विशेष अधिकार होता है। धार्मिक अनुष्ठानों के अतिरिक्त अन्य सभी घरेलू कामकाजों को थारू स्त्री ही सॅभालती है। कहते हैं जादू टोने के बल पर वह बाहर के पुरुषों को पालतू पशुओं की भाँति बना लेती हैं।
ग्राम प्रशासन
ग्राम्य शासन में उनके यहाँ मुखिया, प्रधान, ठेकेदार, मुस्तजर, चपरासी, कोतवार तथा पुजारी वर्ग 'भर्रा' विशेष महत्व रखते हैं। भर्रा चिकित्सक का काम भी करता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ