नखी

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लेख सूचना
नखी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 6
पृष्ठ संख्या 220
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक गंगाारण शुक्ल

नखी (Onychophora) ओनिकोफोरा शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा से है। इसका अर्थ है 'नखर रखनेवाले' 'नखी' (Gr. - Onychus = claw+phorus = bearing)। इस समूह में चलकृमि (walking worms) आते हैं। ये छोटे नखर रखनेवाले प्राणी हैं, जिनके पैर में मुड़े हुए नखर रहते हैं। ये आर्थ्रोपोडा संघ (phylum) के प्राचीनतम, आकर्षक एवं विशिष्ट प्राणी हैं। इनकी प्रत्यक्ष प्राचीन आकृति ही आर्थ्रोपोडा का लक्षण है। साथ ही साथ ये आर्थ्रोपोडा संघ के शेष प्राणियों से इतने भिन्न हैं कि कुछ विशेषज्ञ इन्हें स्तवंत्र समूह में रखना पसंद करते हैं। इनमें वृक्कक (nephridium) ऐसी रचनाएँ भी होती हैं, जो खंडित कृमियों (ऐनिलिडा संघ) में पाई जाती हैं। इस तरह अनेक प्रकार से यह जंतु दो संघों (ऐनिलिडा और आर्थ्रोपोडा) को संबद्ध करने का कार्य करता है।

शारीरिक संरचना

ये स्थलचर प्राणी हैं। इनका बाह्यत्वक्‌ कोमल और पतला होता है। सिर तीन खंडों का बना होता है, जो शरीर से भिन्न नहीं किया जा सकता। इन खंडों में से एक मुखपूर्व (pre-oral) और अन्य दो मुखपश्च (post oral) होते हैं। मुखपूर्ववाले खंड में एक जोड़ा श्रृंगिका और मुखपश्चवाले खंडों के क्रमानुसार एक जोड़ा हनु और एक जोड़ा मुखांकुरक रहता है।

इनके नेत्र सरल वेसिकिल (vesicle) होते हैं। शरीर के सारे खंड समान और प्रत्येक में पार्श्वपाद की भाँति एक जोड़ा अखंडित अवयव होता है, जिसके अंत में दो हँसियाकार नखर होते हैं। हर खंड में एक जोड़ा उत्सर्गीं नलिका रहती है। श्वसन क्रिया श्वासनली द्वारा होती है, जिसके श्वासछिद्र सारे शरीर पर अव्यवस्थित रूप में बिखरे रहते हैं। देहगुहा रुधिरगुहा (haemo-coele) है और हृदयावरक गुहा में युग्मित, पार्श्विक, अपवाही रध्रं खुलते हैं। जननेंद्रियों में रोमिका (cilia) होती है और परिधान सीधे होता है।

चित्र:Nakhi-1.jpg

कुल

नखी समूह दो कुलों, (1) पेरिपैटिडी (Peripatidae) और (2) पेरिपटॉप्सिडी (Peripatopsidae), में विभाजित है।
(1) पेरिपैटिडी कुल में भूमध्यरेखीय प्राणी अंतर्भूत हैं, जिनमें 22 से लेकर 43 जोड़े तक पाद होते हैं और इसमें चार वंश, पेरिपेटस (Peripatus), ओवोपेरिपेटस (Ovoperipatus), टिफ्लोपेरिपेटस (Typhloperipatus) तथा मेसोपेरिपेटस (mesoperipatus) सम्मिलित हैं।
(2) पेरिपटॉप्सिडी (Peripatopsidae) कुल में ऑस्ट्रलेशियन (Australasian) प्राणी हैं, जिनमें 14 से लेकर 25 जोड़े तक पाद होते हैं। इस कुल में पाँच वंश, पेरिपैटॉप्सिस (Peripatopsis), पेरिपैटॉयड्स (Peripatoids), ओओपेरिपेटस (Ooperipatus), ऑपिस्थोपेटस (Opisthopatus) और पैरापेरिपैटस (Paraperipatus) हैं।

चित्र:Nakhi-2.jpg

स्थान

इस समूह में प्राणियों की संख्या अति अल्प हैं, किंतु सबकी रचना एक समान होती है। इसके लगभग सत्तर स्पीशीज़ (species) पाए जाते हैं, जिनका वितरण अविच्छिन्न रूप से विश्व के समस्त उष्ण प्रदेशों में है। ये अयनवृत्त संबंधी देशों, जैसे अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका, एशिया, वेस्ट इंडीज़, मलाया, सुमात्रा, भारत और कुछ अन्य प्रदेशों के जंगलों में पाए जाते है।

इस समूह का स्थानीय प्रदेशों और संसार के विस्तीर्ण और पृथक्‌ पृथक्‌ भागों में पाया जाना इस तथ्य का द्योतक है कि संभवत: पुरातन काल में ये अधिक सफल और विस्तृत रूप में थे, किंतु अब ये क्रमश: लुप्त होते जा रहे हैं।

उपर्युक्त सभी नौ वंशों में इतना अधिक सादृश्य है कि इन सभी के लिए पेरिपेटस (Peripatus) शब्द प्रयोग में आता है। केवल पैरों की संख्या के अंतर को छोड़कर इनके विभिन्न स्पीशीज़ बाह्य आकार में एक से दिखाई देते हैं।

इस लेख में सुगमता और सुविधा के लिए पेरिपेटस शब्द का प्रयोग इस समूह के अंतर्गत आनेवाले सभी स्पीशीज़ के लिए किया गया है। इस वंश का नामकरण गिल्डिंग (Guilding) ने सन्‌ 1826 में किया और आर्थ्रोपोडा संघ के प्राचीनतम सदस्य के रूप में इसकी वास्तविक सत्ता मोज़ली (Moseley) ने, इसके शरीर में श्वासनली के अन्वेषण के पश्चात्‌ पहली बार सन्‌ 1874 में, स्वीकार की थी।

पेरिपेटस

पेरिपेटस विशेष प्रकार का प्राणी है, जो स्थायी रूप से सीलन भरे और एकांत स्थानों में रहता है। यह साधारणतया चट्टानों, पत्थरों, लट्ठों तथा पेड़ों की छाल के नीचे पाया जाता है। सूखे स्थानों में यह नहीं रह पाता और प्रकाश से विरक्ति होने के कारण दिन में कदाचित्‌ ही दिखाई देता है। इस प्रकार ये लज्जालु, समाज से दूर ही रहनेवाले, अंधकार के प्रेमी और अधिक कार्यशील जंतु हैं। संभवत: यह जंतु मांसाहारी है और छोटे कीटाणुओं तथा अन्य जंतुओं का भक्षण करता है।

पेरिपेटस की शारीरिक संरचना

पेरिपेटस कैटरपिलर की भाँति 50 या 75 मिलीमीटर लंबा, बेलनाकार जंतु है। स्पीशीज़ कैपेन्सिस (Capensis) के जंतु लगभग 50 मिलीमीटर लंबे होते हैं। त्वचा कोमल और मखमली होती है, जिस पर उभड़ी हुई चक्रकार रेखाएँ होती हैं। इसके शरीर में बाह्य खंडीभवन दृष्टिगोचार नहीं होता। इस खंडीभवन का अनुमान केवल उसके कई जोड़े ठूँठे अवयवों से होता है, जिनमें से एक युग्मित उपांग प्रत्येक आंतरिक खंड के लिए होता है। इस प्रकार इन खंडों की संख्या तथा इनका रंग भिन्न-भिन्न स्पीशीज़ में भिन्न होता है। साधारणत: इस जीव का पृष्ठीय भाग गहरा धूसर, जैतूनहरित या भूरे से लेकर ईटं के रंग तक का और उदरदेशीय भाग हल्के रंग का तथा अग्र और पश्च भाग गावदुम (Tapering) होता है। शिरोभाग में इसका मुख नीचे की ओर होता है और इसमें कड़ी हुन होती है। मुख के दोनों ओर एक धारहीन मुखांकुरक होता है। इन मुखांकुरकों पर एक एक श्लेष्मक ग्रंथि खुलती है। जब इस जंतु पर किसी प्रकार का आघात अथवा आक्रमण होता है तब इन ग्रंथों से श्लेष्मिक स्राव निकलता है। शरीर के पश्चभाग में गुदा स्थित होती है और प्रजनन छिद्र केवल एक होता है, जो गुदा से थोड़ा आगे नीचे की ओर रहता है। प्रत्येक पाद की जड़ में अंदर की ओर वृक्क रध्रं होता है। नर मादा की अपेक्षा छोटे और संख्या में कम होते हैं और कुछ स्पीशीज़ के नरों में, पादों के निचले भाग में उत्सर्जन रध्रं के ठीक बाहर की ओर श्रोणी या क्रुरा (coxal or crural) ग्रंथियों के छिद्र होते हैं।

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स्पीशीज़ के नरों में, पादों के निचले भाग में उत्सर्जन रध्रं के ठीक बाहर की ओर श्रोणी या क्रुरा (coxal or crural) ग्रंथियों के छिद्र होते हैं।

पाचक नलिका छोटी, सरल और सीधी होती है तथा इस जंतु में एक जोड़ा लारग्रंथि भी होती है। परिवहनीय तंत्र एक पृष्ठीय, नलिकाकार हृदय है, जो शरीर की संपूर्ण लंबाई में फैला होता है।

श्वासनलिका के झुंड या गुच्छे सारे शरीर में विस्तृत होते हैं। खंडों में व्यवस्थित वृक्क ऐनिलिडा (Annelida) की भाँति होता है। मस्तिष्क सिर में होता है और लंबाई में फैली हुई दो समांतर अधरतंत्रिका रज्जु होती हैं, जो एक दूसरे से बहुत सी परियोजियों (commissures) द्वारा जुड़ी हुई होती हैं। इनमें लिंगभेद और जनपिंड नलिकाकार होता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ