नवपिथागोरीयवाद

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नवपिथागोरीयवाद यूनानी दर्शन के इतिहास में तीन कालविभाग हैं। पहला भाग प्रारंभिक विवेचन का काल था, दूसरे भाग में सुकरात, प्लेटो और अरस्तू विवेचन को शिरोविंदु तक ले गए, तीसरे भाग में स्वतंत्र रचनात्मक विवेचन समाप्त हुआ और दर्शनशास्त्र रहस्यवादी पंथ में परिवर्तित होने लगा। नवपिथागोरीयवाद तीसरे भाग में एक अंत:कालीन आंदोलन था। पहली शती ईसवी में अलेग्जेंद्रिया में फिगुलस ने इसे निश्चित आकार दिया। विशिष्ट विचरकां के अभाव में, आंदोलन की दृष्टि भूतकाल की ओर फिरी और इसके फलस्वरूप एक संग्रहवाद सा प्रस्तुत हुआ। तीसरी शती में नवप्लेटोनिज्म ने इसे अपने अंदर विलीन कर लिया।

इस विचार के अनुसार चेतन और अचेतन, आत्मा और प्रकृति, का भेद मौलिक भेद है। 'एक' और जीवात्मा में इतना अंतर है कि उनमें स्पष्ट संसर्ग हो नहीं सकता। यह संसर्ग देवों के द्वारा होता है। इन देवों ने पुराने देवताओं का स्थान प्राप्त किया था।

यूनान में दर्शन को जीवनविधि के रूप में देखा जाता था। यही नवपिथागोरिय दृष्टिकोण था। विवेकी पुरुष के लिए आवश्यक था कि भौतिक पदार्थों से संबंध तोड़ दे और उपासना के द्वारा 'एक' के निकट पहुँचे। जीवन में संयम का शासन होने पर ही ऐसी अवस्था प्राप्त हो सकती है।

नवपिथागोरीयवाद का मंतव्य आधार रूप में यूनानी था, उसकी मनोवृत्ति पूर्वी थी। उपनिषद् में भी कहा है कि ब्रह्मप्राप्ति का अधिकार उसी मनुष्य को मिलता है, जिसके दोष क्षीण हो चुके हों। निलेंप, पवित्र जीवन ही विवेकी पुरुष का लक्ष्य है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ