भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 110
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए
6.कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।
जो व्यक्ति अपनी कर्मेन्द्रियों को तो संयम में रखता है, परन्तु अपने मन में इन्द्रियों के विषयों का स्मरण करता रहता है,जिसकी प्रकृति मूढ़ हो गई है, वह पाखण्डी (मिथ्या आचरण करने वाला) कहलाता है। हम बाहर से चाहे अपनी गतिविधियों को नियन्त्रित कर लें, परन्तु यदि हम उन्हें प्रेरणा देने वाली इच्छाओं को संयम नहीं कर सकते तो, हम संयम का सही अर्थ समझ पाने में असफल रहते हैं।
7.यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेअर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।
परन्तु हे अर्जुन, जो व्यक्ति मन द्वारा इन्द्रियों को नियन्त्रित रखता है और अनासक्त होकर कर्मेन्द्रियों को कर्म के मार्ग में लगाता है, वह अधिक उत्कृष्ट है। मानवीय संकल्प विधान की कठोरता पर विजय प्राप्त कर सकता है हमें सांसारिक वस्तुओं को अपनी तृप्ति के साधन के रूप में नहीं देखना चाहिए। यदि हमें अपनी खोई हुई शान्ति को, अपनी गंवाई हुई अखण्डता को और अपनी नष्ट हुई निर्दोषता को फिर प्राप्त करना हो,तो हमें सब वस्तुओं को वास्तविक ब्रह्म की अभिव्यक्ति के रूप में ही देखना चाहिए और ऐसे पदार्थां के रूप में नहीं, जिन्हें कि पकड़ा जा सकता है। और जिन पर अधिकार किया जा सकता है। वस्तुओं के प्रति अनासक्ति की इस मनोवृत्ति को विकसित करने के लिए चिन्तन आवश्यक है। छठें श्लोक में श्री कृष्ण ने केवल बाह्य परित्याग की निन्दा की है और इस श्लोक में आन्तरिक वैराग्य की सच्ची भावना की प्रशंसा की है।
यज्ञ का महत्व
8.नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ।।
तेरे लिए जो कार्य नियत है, तू उसे कर; क्योंकि कर्म अकर्म से अधिक अच्छा है। बिना कर्म के तो तेरा शारीरिक जीवन भी बना नहीं रह सकता।
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