भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 121
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए
शत्रु काम और क्रोध हैं
अर्जुन उवाच
36.अथ केन पयुक्तोअयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्निपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः।।
अर्जुन ने कहाः परन्तु हे वाष्णेय (कृष्ण), वह क्या वस्तु है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप करता है, जैसे कोई उससे बलपूर्वक पाप करवा रहा हो? अनिच्दिन्नपि: अपनी इच्छा के प्रतिकूल भी। अर्जुन को यही अनुभव होता है कि मनुष्य अपनी इच्छा के विपरीत भी कार्य करने के लिए विवश होता है। परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। मनुष्य मौन रूप से अपनी सहमति दे देता है, जैसा कि अगले श्लोक में गुरु द्वारा किए गए ’काम’ या ’लालसा’ शब्द के प्रयोग से सूचित है। शंकराचार्य का कथन है: जिसे हम प्रकृति अर्थात् मनुष्य का स्वभाव कहते हैं, वह मनुष्य को अपने मार्ग पर राग और द्वेष के द्वारा ही खींच ले जाती है।[१]
श्री भगवानुवाच
37.काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्धवः ।
महाशनो महापाप्पा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ।।
श्री भगवान् ने कहा: यह वस्तु काम और क्रोध हैं, जो रजोगुण से उत्पन्न हुए हैं। ये सब-कुछ निगल जाने वाले हैं, और अत्यन्त पापपूर्ण हैं। इस संसार में इन्हीं को शत्रु समझो।
38.धूमेनाव्रियते वहिृर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।।
जैसे आग धुएं से ढक जाती है, या दर्पण धूल से ढक जाता है, या भू्रण गर्भ द्वारा सब ओर से घिरा रहता है, उसी प्रकार यह उस (रजोगुण) से ढका रहता है। इदम्ः यह-यह ज्ञान। - शंकराचार्य। प्रत्येक वस्तु रजोगुण से आवृत्त है।
39.आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ।।
हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), इच्छा की इस तृप्त न होने वाली आग से, जो कि ज्ञानी मनुष्य की चिरशत्रु है, ज्ञान आवृत्त रहता है। तुलना कीजिए: ’’इच्छा इच्छित वस्तुओं के उपभोग से कभी तृप्त नहीं होती, अपितु, वह उसी तरह अधिक और अधिक बढ़ती जाती है, जैसे ईंधन डालने से आग बढ़ती जाती है।’’ [२]
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ या हि पुरुषस्य प्रकृतिः सा रागद्वेषपुरःसरैव स्वकार्ये पुरुषं प्रवर्ययति। गीता पर शंकराचार्य की टीका, 3,34
- ↑ न जातु कामः कामानमुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिर्धते।। - मनु 2,94 स्पिनोजा से तुलना कीजिएः ’’क्यों कि वे वस्तुएं, जिन्हें मनुष्य, यदि उनके कार्यां से अनुमान किया जाए तो, सबसे अच्छा समझते हैं, धन, यश और ऐन्द्रिय उपभोग हैं। इनमें से अन्तिम वस्तु से तो जी भर जाता है और उसके लिए बाद में पछताव होता है, परन्तु अन्य दो वस्तुओं के विषय में तो कभी तृप्ति होती ही नहीं। जिनता अधिक हम पाते हैं उतना ही अधिक हम और चाहने लगते हैं; जब कि यश की लालसा हमें इस बात के लिए बाधित करती है। कि हम अपने जीवन को अन्य लोगों की सम्मतियों के अनुकूल व्यवस्थित करें। परन्तु यदि किसी वस्तु से अनुराग न हो, तो उसके सम्बन्ध में कोई झगड़ा न होगा; यदि वह नष्ठ हो जाए, तो कोई विषाद अनुभव न होगा और वह वस्तु किसी अन्य के पास हो, तो कोई ईष्या न होगी। संक्षेप में, मन में कोई विक्षोभ न होगा। ये सब बातें उन वस्तुओं के प्रति अनुराग से उत्पन्न होती हैं, जो नश्वर हैं। परन्तु एक शाश्वत और असीम वस्तु के प्रति अनुराग मन को पूरी तरह से भर देता है और उसमें विषाद का मिश्रण बिलकुल नहीं होता। इसीलिए यही वस्तु ऐसी है, जिसकी हमें बहुत इच्छा होनी चाहिए और अपनी पूरी शक्ति से खोज करनी चाहिए। ’’ - डि इण्टैलेक्टस एमेण्डेशन्स। आधारभूत सामाजिक अपराध किसी भी रूप में वर्ग-विशेषाधिकार, जातीय भेदभाव और राष्ट्रीय अहंकार की भावना को अपना लेना है, क्यों कि इससे अन्य लोगों को कष्ट होता है। वड्र्सवर्थ के इन शब्दों का कोई जवाब नहीं है: ’’हमें अपने आनन्द या अपने अहंकार को कभी नहीं मिलाना चाहिए, उस क्षुद्र से क्षुद्र वस्तु के दुःख के साथ, जो कि अनुभव करती है।’’ - हाट-लीप वैल।