भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 131
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा
गीता धर्म के किसी इस या उस रूप की चर्चा नहीं करती, अपितु उस मनोभाव के विषय में कहती है, जो सब रूपों में अभिव्यक्त होता है और वह है- परमात्मा को पाने और उसके साथ हमारे अपने सम्बन्ध को समझने की इच्छा। [१]
सब लोग उसी परमात्मा की पूजा करते हैं। धारणा और प्रणाली के अन्तर स्थानीय प्रभाव और सामाजिक अनुकूलनों द्वारा निर्धारित होते हैं। सब प्रकट रूप उसी एक भगवान् के हैं। ’’विष्णु शिव है और शिव विष्णु है; और जो समझता है कि वे अलग-अलग हैं, वह नरक में जाता है।’’ [२] जिसे विष्णु समझा जाता है, वह रुद्र है और जो रुद्र है, वही ब्रह्मा है। रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा, इन तीनों देवताओं के रूप में एक ही शक्ति काम कर रही है।’’ [३] उदयनाचार्य ने लिखा हैः ’’शैव लोग जिसकी शिव मानकर पूजा करत हैं, वेदान्ती जिसे ब्रह्म मानते हैं, बौद्ध जिसे बुद्ध मानते हैं, प्रमाणों के ज्ञान में पटुनैयायिक जिसे कर्ता मानते हैं, जैन धर्म के अनुयायी जिसे अर्हत् मानते हैं, कर्मकाण्डी मीमांसक जिसे कर्म मानते हैं, वह तीनों लोकों का स्वामी हरि तुम्हें मनोवांछित फल दे। ’’ [४] यदि वह आज के युग में लिख रहा होता, तो वह इतना और जोड़ देता कि ’’जिसको कर्म के प्रति निष्ठा रखने वाले ईसाई ईसा मानते हैं और मुसलमान अल्लाह मानते हैं।’’ [५] परमात्मा उन सबको फल देने वाला है, जो अध्यवसायपूर्वक उसकी खोज करते हैं, फिर चाहे वे परमात्मा को किसी भी रूप में क्यों न मानते हो आध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व लोग अपने देवताओं से भिन्न देवताओं को मानने के लिए तैयार नहीं होते। अपने विश्वास के प्रति उनका प्रेम उन्हें परमात्मा की विशालतर एकता के प्रति अन्धा बना देता है। यह धार्मिक विचारों के क्षेत्र में अहंवाद का परिणाम है। इसके विपरीत गीता इस बात की पुष्टि करती है कि भले ही लोगों के विश्वास और व्यवहार अनेक और विविध-रूपी हों, फिर भी आध्यात्मिक उपलब्धि, जिसके लिए, ये सब साधनमात्र हैं, एक ही है।
इस बात की एक प्रबल चेतना, कि उसने सत्य को, सम्पूर्ण सत्य को, और ऐसी वस्तु को, जो सत्य के सिवाय कुछ नहीं है, पा लिया है जब उन लोगों की दशा के प्रति बाह्म अन्धकार में हैं, लोकोत्तर चिन्ता के साथ मिल जाती है, त बवह मन की एक ऐसी दशा को उत्पन्न कर देती है, जो साधक की मनोदशा से बहुत दूर नहीं होती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुलना कीजिएः ’’उसके लिए सारी पूजा पवित्र थी, क्यों कि उसका विश्वास था कि निचले से निचले रूपों में, अज्ञानी से अज्ञानी और मूर्ख से मूर्ख पुजारियों में भी दिव्य भगवान् की सच्ची खोज करने का तत्व था; और इन लोगों में और बड़े-से-बडे़ शानदार कर्मकाण्डियों या उच्चतम दार्शनिक सुनिश्चितताओं के बीच इतना थोड़ा अन्तर है कि हम विश्वास कर सकते हैं कि स्वर्ग में रहने वाले सन्त उस अन्तर को देखकर मुस्कुराते-भर होंगे। ’’ ऐलिजाबैथ वाटरहाउस, थोट्स आफ ए टर्निशयरीः ऐवेलीन अण्डरहिल द्वारा लिखित ’वर्शिप’ (1937) में पृष्ठ 1 पर उद्धत।
- ↑ . हरिरूपी महादेवो लिगंरूपी जनार्दनः । ईषद्प्यन्तरं नास्ति मेदकृन्नरकं ब्रजेत् ।। - बृहन्नारदीय। साथ ही मैत्रायणे उपनिषद् से तुलना कीजिए: स वा एष एकस्त्रिधाभूतः । साथी ही देखिए अथर्ववेद: एक ही ज्योति अपने-आप को विविध रूपों में प्रकट करती है, एकं ज्योतिर्बहुधाविभाति। 13, 3, 17
- ↑ यो वै विष्णुः स वै रुद्रो यो रुद्रः स पितामहः । एक मूर्तिस्त्रयो देवा रुद्रविष्णुपितामहाः ।।
- ↑ यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः; बौद्धाः बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसका, सोअयं वो विद्धातु वाच्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।।
- ↑ . क्रैस्त्वाः क्रीस्तुरिति क्रियापररताः अल्लेति माहम्मदाः । अबुलफजल ने अकबर के दीने-इलाही की भावना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया हैः ’’ हे परमात्मा, मैं प्रत्येक मन्दिर में उन लोगों को देखता हू, जो तुझे ढूंढते हैं; और मैंने जिनती भी भाषाएं बोली जाती सुनी हैं, उन सबमें लोग तेरी स्तुति करते हैं। बहुदेववाद और इस्लाम तुझे खोजते हैं; प्रत्येक धर्म कहता है कि ’तू एक है और अद्वितीय है, मस्जिद में लोग तेरे प्रेम के कारण नमाज पढ़ते हैं और ईसाई गिरजाघरों में घंटियां बजाते हैं। मैं कभी ईसाईमठ में जाता हूँ और कभी मस्जिद में, परन्तु वह तू ही है, जिसकी खोज मैं मन्दिर-मन्दिर में करता फिरता हूँ। तेरे कृपापात्र लोग विश्वास-भेद या कटटरता से कोई वास्ता नहीं रखते, क्यों कि इनमें से एक भी तेरे सत्य के पर्दे के पीछे नहीं आता। विश्वास-भेद भिन्न विश्वास वाले के लिए है और कट्टर व्यक्ति के लिए है। परन्तु गुलाब की पंखुड़ियों का पराग तो इत्र बेचने वाले के हृदय की वस्तु है। ’’ - ब्लाखमैन, आईने-अकबरी, पृ. 30 (भूमिका)।