भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 135

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
19.यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ।।
जिसके सब कार्य इच्छा के संकल्प से स्वतन्त्र हैं, जिसके कर्म ज्ञान की अग्नि मे जल गए हैं, उसे ज्ञानी लोग पण्डित कहते हैं।ऐसे कर्म करने वाले का दृष्टिकोण ज्ञान से उत्पन्न स्वार्थ-लालसा से मुक्त सार्वभौम दृष्टिकोण होता है। यद्यपि वह कार्य करता है, फिर भी वह वस्तुतः कुछ नहीं कर रहा हेाता।
 
20.त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृत्यो निराश्रयः ।
कर्मण्‍यभिप्रव़त्‍तोअपि नैव किच्चित्‍करोति स ।।
कर्म के फल के प्रति आसक्ति को त्यागकर, सदा तृप्त रहकर, बिना किसी पर आश्रित हुए वह भले ही सदा कार्य में लगा रहे, फिर भी वह कुछ नहीं कर रहा होता।
अष्टावक्रगीता से तुलना कीजिएः ’’जो अस्तित्व और अनस्तित्व दोनों से रहित है, जो ज्ञानी है, सन्तुष्ट है और इच्छाओं से मुक्त है, वह भले ही संसार की दृष्टि में कार्य कर रहा हो, परन्तु वस्तुतः वह कुछ नहीं कर रहा होता। ’’[१] ’’जो मनुष्य वेदों द्वारा बताए गए सब धार्मिक अनुष्ठानों को उनके प्रति कोई आसक्ति न रखते हुए परमात्मा को समर्पित कर देता है, वह अकर्म की सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। उसका प्राप्तव्य फल केवल हमको कर्म की ओर आकर्षित करना है।’’[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18, 19। साथ ही देखिए, 20-6
  2. वेदोक्तमेव कुर्वाणो निस्सड्गोअर्पितमीश्वरे। नैष्कम्र्यसिद्धि लभते रोचनार्थ फलश्रतिः ।।

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