भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 165

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
38.कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यिति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढ़ो ब्रह्मणः पथि।।
हे महाबाहु (कृष्ण), दोनों ओर से स्थान-भ्रष्ट होकर किसी भी स्थान पर दृढ़ता से जमा हुआ न होने के कारण वह ब्रह्म की ओर जाने वाले मार्ग में किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर फटे हुए बादल की भांति कहीं नष्ट तो नहीं हो जाता? छोनों ओर से स्थान-भ्रष्ट, इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः; होकर कहीं वह ऐसे प्रदेश में तो नहीं रह जाता, जिसका कोई स्वामी नहीं है? क्या वह अपने इस जीवन और शाश्वत जीवन दोनों को गंवा बैठता है? उन अनेक व्यक्तियों का क्या होता है जो योग के अत्यन्त दुर्गम पथ पर चलते हुए उसके अन्त तक पहुंचने में सफल नहीं हो पाते? क्या उनका सारा प्रयत्न एकदम व्यर्थ रहता है? क्या किसी ऐसे कार्य को शुरू करना भला है, जिसे कि व्यक्ति पूरा कर पाने में समर्थ न हो?
 
39.एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्यु पपद्यये ।।
हे कृष्ण, तू मेरे इस संशय को पूरी तरह मिटा दे, क्यों कि तेरे सिवाय और कोई ऐसा नहीं है, जो इस संशय को नष्ट कर सके।
 
श्रीभगवानुवाच
40.पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।।
श्री भगवान् ने कहा:
हे पार्थ (अर्जुन), उसका न तो इस जीवन में विनाश होता है और न परलोक में ; क्योकि प्यारे मित्र, जो व्यक्ति भला काम करता है, उसकी कभी दुर्दशा नहीं होती। ईमानदारी से जीवन बिताने वाला कोई भी व्यक्ति कष्ट में नहीं फंस सकता। किसी भले आदमी का अन्त बुरा नहीं हो सकता। परमात्मा हमारी दुर्बलताओं को, और उन पर विजय पाने के लिए हम जो प्रयत्न करते हैं, उनको जानता है। हमें निराश नहीं होना चाहिए, क्यों कि यहां असफलता भी सफलता है और ईमानदारी से किया गया कोई भी प्रयत्न निष्फल नहीं जाता। ऐकहार्ट का कथन है: ’’यदि तुम अपने इरादे में विफल नहीं रहते, बल्कि केवल क्षमता की दृष्टि से विफल रहते हो, तो अवश्य ही परमात्मा की दृष्टि में तुमने अपनी ओर से सब-कुछ कर डाला है। ’’ गेटे से तुलना कीजिए: ’’ जो भी कोई उद्यम और श्रम करता है, उसका हम उद्धार कर सकते हैं। ’’
 
41.प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोअभिजायते ।।
जो व्यक्ति योग के मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है, वह पुण्यात्माओं के लोक में जाता है और वहां अनेकानेक वर्षों तक निवास करने के बाद फिर पवित्रात्मा और समृद्ध लोगों के घर में जन्म लेता है।
शाश्वती:: अनेकानेक, सदा के लिए नहीं।
शुचीनाम्: धर्मात्मा । 6, 1। में शुचिता से अभिप्राय बाह्म स्वच्छता से है; यहां आन्तरिक पवित्रता से अभिप्राय है। [१]
 
42.अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम ।।
या वह बुद्धिमान योगियों के वंश में भी जन्म ले सकता है। इस प्रकार का जन्म इस संसार में और भी दुर्लभ होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभयां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरम्।।- माध्व पाराशर में उद्धत व्याघ्रपाद

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