भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 17
मैगस्थनीज़ ईसवी पूर्व 320) ने लिखा है कि हैराक्लीज़ की पूजा सौरासैनोई (शूरसेन) लोगों द्वारा की जाती थी, जिनके देश में दो बड़े शहर मैथोरा (मथुरा) और क्लीसोबोरा (कृष्णपुर) हैं। तक्षशिला के यूनानी भागवत हीलियोडोरस ने बेसनगर के शिलालेख (ईसवी-पूर्व 180) में वासुदेव को देवादेव (देवताओं का देवता) कहा है। नानाघाट के शिलालेख में, जो ईसवी-पूर्व पहली शताब्दी का है, प्रारम्भिक श्लोक में अन्य देवताओं के साथ-साथ वासुदेव की भी स्तुति की गई है। राधा, यशोदा और नन्द जैसे प्रमुख व्यक्तियों का उल्लेख बौद्ध गाथाओं में भी मिलता है। पतंजलि ने पाणिनि पर टीका करते हुए अपने महाभाष्य में 4, 3, 98 में, वासुदेव को भागवत कहा है। यह पुस्तक ‘भगवद्गीता’ कहलाती है, क्योंकि भागवत धर्म में कृष्ण को श्री भगवान् समझा जाता है। कृष्ण ने जिस सिद्धान्त का प्रचार किया है, वह भागवत धर्म है। गीता में कृष्ण ने कहा है कि वह कोई नई बात नहीं कह रहा, अपितु केवल उसी बात को दुहरा रहा है, जो पहले उसने विवस्वान् को बताई थी और विवस्वान् ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताई थी।[१]महाभारत में कहा गया है कि “भागवत धर्म परम्परागत रूप से विवस्वान् से मनु को और मनु से इक्ष्वाकु को प्राप्त हुआ था।”[२] ये दो सम्प्रदाय, जो एक ही रूप में प्रारम्भ किए गए थे, अवश्य एक ही रहे होंगे। कुछ अन्य प्रमाण भी हैं। नारायणीय या भागवत धर्म के प्रतिपादन में कहा गया है कि पहले इस धर्म का उपदेश भगवान् ने भगवद्गीता में किया था।[३]फिर यह भी बताया गया है कि “इसका उपदेश भगवान् ने कौरवों और पांडवों के युद्ध में उस समय किया था, जबकि दोनों पक्षों की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार खड़ी थी और अर्जुन मोहग्रस्त हो गया था।”[४] यह एकेश्वरवादी (ऐकान्तिक) धर्म है।
गीता में कृष्ण को उस परब्रह्म के साथ तद्रूप माना गया है, जो इस बहुरूप दीखने वाले विश्व के पीछे विद्यमान एकता है, जो सब दृश्य वस्तुओं के पीछे विद्यमान अपरिवर्तनशील सत्य है, जो सबसे ऊपर है और सर्वान्त-व्यापी है। वह प्रकट भगवान् है,[५]जिसके कारण मत्ये लोगों को उसे जानना सरल हो जाता है। अनश्वर ब्रह्म की खोज करने वाले उसे ढूंढ़ अवश्य लेते हैं, परन्तु उसके लिए उन्हें बड़ा तप करना पड़ता है। इस रूप में वे भगवान् को सरलता से पा सकते हैं। वह परमात्मा कहा जाता हैं, जिसमें यह अर्थ निहित है कि वह सर्वातीत है। वह जीवभूत है, अर्थात् सबका प्राणरूप हैं। हम किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को भगवान् किस प्रकार मान सकते हैं? हिन्दू विचारधारा में किसी व्यक्ति को परमात्मा के साथ एकरूप मानना साधारण बात है। उपनिषदों में बताया गया है कि पूर्णतया जागरित आत्मा, जो परब्रह्म के साथ वास्तविक सम्बन्ध को समझ लेती है, इस बात को देख लेती है कि वह मूलतः परब्रह्म के साथ एकरूप है और वह अपने ब्रह्म के साथ एकरूप होने की घोषणा भी कर देती है।
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