भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 174

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
अध्याय-7
ईश्वर और जगत् ईश्वर प्रकृति और आत्मा है

  
23.अन्तवत्तु फलं तेषां तद्धवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्धक्ता यान्ति मामपि।।
परन्तु इन अल्पबुद्धि वाले लोगों द्वारा प्राप्त किया जाने वाला फल अस्थायी होता है। देवताओं की पूजा करने वाले लोग देवताओं को प्राप्त होते है, किन्तु मेरा भक्त मेरे पास ही पहुंचता है।क्योंकि लोकोत्तर ब्रह्म को सरलता से नहीं जाना जा सकता, इसलिए हम भगवान् के रूपों की शरण लेते हैं, और उनकी पूजा करते हैं। जिन फलों के लिए हम साधना करते हैं, उन्हें हम प्राप्त कर लेते हैं, क्योंकि भगवान् हमारी अपूर्ण दर्शन-शक्ति के प्रति धैर्यवान् है। हम जिस भी स्तर पर उसके पास पहुंचते हैं, वह उसी स्तर पर हमारी प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लेता है और उनका उत्तर देता है। किसी भी प्रकार की भक्ति व्यर्थ नहीं है। धीरे-धीरे निरक्षर भक्त भी ब्रह्म में अपना सर्वोच्च हित खोज लेता है और विकसित होता हुआ उस तक पहुंच जाता है। जो लोग उस लोकोत्तर परमेश्वर की पूजा के स्तर तक ऊंचे उठ जाते हैं, जो सब रूपों में व्याप्त हे और सब रूपों से परे है, वे उस सर्वोच्च दशा को जान लेते हैं, और उसे प्राप्त कर लेते हैं, जो अस्तित्व की दृष्टि से अखण्डन, ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण, प्रेम की दृष्टि से परम और संकल्प की दृष्टि से सम्पूर्ण है। अन्य सब वस्तुएं आंशिक और सीमित हैं और वे विकास के केवल निम्नतर स्तरों पर ही अर्थवान् हैं।
 
अज्ञान की शक्ति
24.अव्यक्तंव्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।
जो बुद्धिहीन लोग, जो मेरे अपरिवर्तनशील और सर्वोच्च उच्चतर स्वभाव को नहीं जानते वे मुझे, जो कि अव्यक्त हूं, व्यक्त हुआ मानते हैं।रूपहीन परमात्मा पर हम जिन रूपों का आरोप करते हैं, वे हमारी अपनी सीमिताओं के कारण होते हैं। हम परम वास्तविकता के चिन्तन से दूर हटकर काल्पनिक रूपों का चिन्तन करने की ओर झुकते हैं। एक अव्यक्त नित्य ब्रह्म को छोड़कर अन्य देवता उस ब्रह्म पर आरोपित रूपमात्र हैं। वह परमात्मा अनेक देवताओं में विद्यमान एक देवता नहीं है। वह सदा परिवर्तित होते हुए अनेक देवताओं के पीछे विद्यमान एक परमात्मा है, जो सब रूपों से परे है और जो अन्तहीन गतिशीलता का अचल केन्द्र है।
 
25.नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोअयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।
अपनी सृजनशील शक्ति (योगमाया) द्वारा आवृत्त होने के कारण मैं सब लोगों के सम्मुख प्रकट नहीं होता। यह मूढ़ जगत् मुझे नहीं जानता, जो कि मैं अजन्मा और अपरिवर्तनशील हू।योग: शंकराचार्य ने इस शब्द का अर्थ ’तीन गुणों का संयोग’ किया है; मधुसूदन की दृष्टि में इसका अर्थ ’सकंल्प’ है।भगवान से तुलना कीजिए: ’’हे प्रभु, सर्वव्यापी भगवान् परमात्मा योगेश्वर, इन तीनों लोकों में ऐसा कौन है, जो इस रहस्य को जान सके कि तुम कब, कहां, कैसे और किन रूपों में क्रीड़ा करते रहते हो? ’’[१]केवल विशुद्ध सत् (ईश्वर) अव्यक्त है; उसके अतिरिक्त अन्य सब वस्तुएं व्यक्ति जगत् से सम्बन्ध रखती हैं।

26.वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मांतु वेद कश्चन।।
हे अर्जुन, मैं उन सब प्राणियों को जानता हूं जो अतीत में हो चुके हैं, जो इस समय विद्यमान हैं और जो भविष्य में होने वाले हैं, परन्तु मुझे कोई नहीं जानता।
 
27.इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वामोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गेयान्ति परन्तप।।
हे भारत (अर्जुन), हे शत्रुओं को जीतने वाले (अर्जुन), सब प्राणी इच्छा और द्वेष के कारण उत्पन्न हुए द्वैत के वश में होकर मोह अर्थात् भ्रम मे पड़ जाते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. को वेत्ति भूमन् भगवन् परात्मन् योगेश्वरोतिर्भवस्त्रिलोक्याम्। क्व वा कथं वा कति वा कदेति विस्तारवन् क्रीडसि योगमायाम्।।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन