भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 181

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है सबसे बड़ा रहस्य

   
श्रीभगवानुवाच
1.इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेअशुभात्।।
श्रीभगवान् ने कहा: मैं तुझको, जो कि ईष्र्या से रहित है, विज्ञान सहित ज्ञान का यह गम्भीर रहतस्य बतलाता हूं, जिसे जानकर तू सब बुराइयों से मुक्त हो जाएगा। विज्ञानसहितम्, अनुभवयुक्तम्। - शंकराचार्य। परन्तु हम ज्ञान का अर्थ ’प्रबोध’ और विज्ञान का अर्थ ’विस्त्रृत ज्ञान’ मानते हैं। इनमें से पहला आधिविद्यक सत्य है, जब कि पिछला वैज्ञानिक ज्ञान है। हमारे पास सत्य को, जो अन्तज्र्ञानात्मक और साथ ही साथ मानवीय मन का बौद्धिक विस्तार है, उपलबध करने के लिए ये विभिन्न और परस्परपूरक साधन विद्यमान हैं। हमें प्रबोध और ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए, वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए और वस्तुओं के स्वभाव को गहराई तक समझना चाहिए। दार्शनिक लोग यह सिद्ध कर देते हैं कि परमात्मा का अस्तित्व है, परन्तु उनका परमात्मा के सम्बन्ध में ज्ञान परोक्ष है; मुनि लोग यह बताते हैं कि उन्होंने परमात्मा की वास्तविकता को अपनी आत्मा की गहराइयों में अनुभव किया है और उनका ज्ञान प्रत्यक्ष है।[१]देखिए 3,41; 6, 8।

2.राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धम्र्य सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।
यह सबसे बड़ा ज्ञान है; सबसे बड़ा रहस्य है; यह सबसे अधिक पवित्र है; यह प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा जाना जाता है; यह धर्मानुकूल है; इसका अभ्यास करना सरल है और यह अनश्वर है। राजविद्या, राजगुह्यम्: शब्दार्थ है ज्ञान का राजा, रहस्यों का राजा, किन्तु भावार्थ है सबसे बड़ा ज्ञान, सबसे बड़ा रहस्य। प्रत्यक्षावगमम्: यह तर्क का विषय नहीं है, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सिद्ध है। यह परिचय द्वारा प्राप्त ज्ञान है; केवल वर्णन, कही-सनुी बात या किसी की बताई गई बात पर आधारित ज्ञान नहीं है। सत्य तो स्वयं अपने प्रकाश में चमक रहा है और इस बात की प्रतीक्षा में हे कि यदि रुकावट डालने वाले आवरण हटा दिए जाएं, तो वह हमारे द्वारा देख लिया जाए। मनुष्य को अपने विकसित और पवित्र अन्तज्र्ञान द्वारा भगवान् को अपने आत्म के रूप में ही देखना है।[२] तुलना कीजिए, प्रबोधविदितम्। केन उपनिषद् 2, 12।
 
3.अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवत्र्मनि।।
हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), जो लोग इस मार्ग में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त न करके फिर मत्र्य जीवन (संसार) के मार्ग में लौट आते हैं। यह सर्वोच्च ज्ञान अवतारधारी भगवान् कृष्ण की ब्रह्म के साथ, जो सबका मूल है, एकरूपता का ज्ञान है। हमें अन्तिम प्रबोधन तब प्राप्त होगा, जब कि हम अवतार की उपासना इस ज्ञान के साथ करेंगे। ब्रह्म का सीधा ध्यान कर पाना कहीं अधिक कठिन है। क्येांकि अर्जुन श्रद्धावान् मनुष्य है, इसलिए उसे यह रहस्य बताया गया है। श्रद्धाहीन लोगों को, जो इसे स्वीशकार नहीं करते, मुक्ति प्राप्त नहीं हेाती, अपितु वे फिर जन्म के बन्धन में आ जाते हैं। जिस श्रद्धा की मांग की गई है, वह उद्धार करने वाले ज्ञान की वास्तविकता में और मनुष्य की उस ज्ञान को प्राप्त कर सकने की क्षमता में श्रद्धा है। ब्रह्म की स्वतन्त्रता की ओर विकसित होने के लिए पहला कदम हमारे अन्दर विद्यमान उस परमेश्वर में श्रद्धा का होना है, जो हमारे अस्तित्व और कर्मां को संभाले हुए हैं जब हम उस आन्तरिक ब्रह्म के प्रति आत्मसमर्पण कर देते हैं, तब योगाभ्यास सरल हो जाता है। अवतारधारी भगवान् परम वास्तविकता का ही रूप है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अस्ति ब्रह्मेति चेद् परोक्षं ज्ञानमेव तत्।अहं (वाअस्मि) ब्रह्मेति चेद् वेद अपरोक्षं तदुच्यते।
  2. न शास्त्रैर्नापि गुरुणा दृश्यते परमेश्वरः। दृश्यते स्वात्मनैवात्मा स्वया सत्वस्थया धिया। - योगवाशिष्ठ, 6, 118, 4

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