भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 185
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है सबसे बड़ा रहस्य
15.ज्ञानयज्ञेन चाप्पयन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।
अन्य लोग ज्ञानयज्ञ द्वारा यज्ञ करते हुए मेरी उपासना करते हैं। वे मुझे एक रूप वाला और साथ ही अनेक रूपों वाला, सब दिशाओं की ओर अभिमुख जानकर मेरी पूजा करते हैं।
शंकराचार्य का मत है कि यहां पुराजियों के तीन वर्गों का उल्लेख किया गया है।[१] रामानुज और मध्व का मत है कि केवल एक ही वर्ग का उल्लेख है। तिलक का विचार है कि यहां अद्वैत, द्वैत और विशिष्टाद्वैत से अभिप्राय है। मनुष्य उस भगवान् की पूजा करते हैं, जो हमारे सम्मुख सब रूपों में खड़ा हुआ है, जो सब अस्तित्वों के साथ एक रूप है और साथ ही उन सबसे पृथक् भी है।
16.अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोअहमहमेवाज्यमहग्निरहं हुतम्।।
मैं ही कर्मकाण्ड हूं, मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही पितरों के लिए पिण्डदान हूं, मैं ही औषधि हूं, मैं ही मन्त्र हूं, मैं ही घृत हूं, मैं ही अग्नि हूं और मैं ही आहुति हूं।औषधि या जड़ी-बूटी सब प्राणियों के आहार की प्रतीक है।[२] वैदिक यज्ञ की व्याख्या हमारी सम्पूर्ण प्रकृति की आहुतिके रूप में, विश्वात्मा के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण के रूप में की गई है। जो कुछ हमने उससे प्राप्त किया है, वह हम उसे वापस दे देते हैं। उपहार और आत्मसमर्पण दोनों ही उसके हैं।
17.पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोकाडार ऋक्साम यजुरेव च।।
मैं इस संसार का पिता हू, माता हूं, संभालने वाला हूं, और पितामह हूं। मैं ज्ञान का लक्ष्य हूं, पवित्र करने वाला हूं, मैं ’ओउम्’ ध्वनि हूं और मैं ही ऋग, साम और यजुर्वेद भी हूं।
18.गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।
मैं ही लक्ष्य हूं, भरण-पोषण करने वाला हूं, स्वामी हूं, साक्षी हूं, निवास-स्थान हूं; शरण हूं, और मित्र हूं। मैं ही उत्पत्ति और विनाश हूं; मैं ही स्थिति हूं; मै ही विश्राम का स्थान हूं और अनश्वर बीज हूं। तुलना कीजिए: ’’मैं बुद्ध की शरण में जाता हूं । वह मेरा शरण-स्थान है।’’[३]
19.तपाम्यहमहं वर्ष निगृहृाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।
मैं तपता (गर्मी देता) हूं; मैं ही वर्षा को रोकता और छोड़ता हूं। मैं अमरता हूं और साथ ही मृत्यु भी हूं। हे अर्जुन, मैं सत् (जिसका अस्तित्व है) भी हूं और असत् भी हूं। ऋग्वेद से तुलना कीजिए: यस्य छाया अमृतं यस्य मृत्युः। सत् परम वास्तविकता है और असत् ब्रह्माण्डीय अस्तित्व है और भगवान् ये दोनों हैं। जब वह व्यक्त होता है, त बवह सत् होता है; और जब संसार अव्यक्त होता है, तब वह असत् होता है। [४] रामानुज सत् की व्याख्या वर्तमान अस्तित्व और असत् की व्याख्या अतीत और भविष्यत् के अस्तित्व के रूप में करता है। मुख्य बात यह है कि परमेश्वर की हम चाहे जिस रूप में पूजा करें, वह हमारी प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है और प्रार्थिक वस्तुएं प्रदान करता है।[५]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नीलकण्ठ का कथन है: एकत्वेन अहमेव भगवान् वासुदेव इत्यभेदेन औपनिषदाः, पृथक्त्वेन अयम् ईश्वरो मम स्वामीति बुद्ध्या प्राकृता, अन्ये पुनर्बहुधा बहुप्रकारं विश्वतोमुखम् सवैद्वारैर्यत्किज्चिद्दृष्टं तद्भगवत्स्रूपमेव, यत् श्रुतं तत्त्न्नामैव यदुक्तं भुक्तं वा, तत्तदर्पितमेवेत्येवं विश्वतोमुखं यथा स्यात् तथा माम् उपासते।
- ↑ औषधं सर्वप्राणिभिर्यद् अद्यते तद् औषधशब्दवाच्यम्। -शंकराचार्य।
- ↑ बुद्धं शरणं गच्छामि एष मे शरणम्।
- ↑ कार्यकारणे वा सदसती।- शंकराचार्य।
- ↑ अतस्तेषां विश्वतोमुखं मम भजनं कुर्वताम्, सर्वरूपेणामनुग्रहं करोमीति भावः।- नीलकण्ठ