भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 194

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अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है परमात्मा की अन्तर्यामिता और लोकातीतता

   
10.तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
जो लोग इस प्रकार निरन्तर मेरी भक्ति करते हैं और प्रीतिपूर्वक मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं बुद्धि की एकाग्रता प्रदान करता हूं, जिसके द्वारा वे मेरे पास पहुंच जाते हैं।बुद्धियोग: मन की आस्था जिसके द्वारा शिष्य उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जिससे वह परिवर्तनशील और नश्वर सब रूपों में एक ही भगवान् के दर्शन करने लगता है।
 
11.तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।
इन पर दयालु होने के कारण मैं अपनी वास्तविक दशा में रहता हुआ ज्ञान के चमकते हुए दीपक द्वारा उनके अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को नष्ट कर देता हूं।
परमात्मा मनुष्य के कल्याण के लिए संसार को प्रभावित करता है, जब कि वह स्वयं इससे पृथक् रहता है। आत्मभाव की व्याख्या प्राणियों की आन्तरिक भावना के रूप में भी की गई है। यहां पर गुरु इस बात को स्पष्ट करता है कि किस प्रकार भक्ति से अज्ञान का नाश और ज्ञान का उदय होता है। जब अज्ञान नष्ट हो जाता है, तब परमात्मा मनुष्य की आत्मा में प्रकट हो जाता है। जब प्रेम और भक्ति का उदय होता है, तब ब्रह्म ही व्यक्ति में भर उठता है। भक्ति ज्ञान का एक साधन भी है। इसके द्वारा हम भगवान् की करुणा और बुद्धि का बल, बुद्धियोग प्राप्त करते हैं। बुद्धि के प्रत्यक्ष अन्तज्र्ञान द्वारा बौद्धिक ज्ञान दीप्तिमान् और सुनिश्चित हो उठता है।ईश्वर सबका बीज और सबकी पूर्णता है
 
अर्जुन उवाच
12.परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।
अर्जुन ने कहा:
तू परब्रह्म है, परमधाम है और तू परम पवित्र करने वाला है, शाश्वत दिव्य पुरुष है। तू सबसे प्रथम देवता है, अजन्मा और सर्वव्यापी है।
 
13.आहुस्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।
सब ऋ़षियों ने तेरे विषय में यही कहा है; यहां तक कि दिव्य ऋषि नारद, साथ ही असित, देवल और व्यास ने भी यही कहा है और तूने स्वयं भी यही मुझे बताया है।अर्जुन, जो कुछ पहले बताया जा चुका है, उसकी सत्यता को स्वीकार करता है और अपना यह विश्वास प्रकट करता है कि वह कृष्ण, जो उससे बात कर रहा है, सर्वोच्च परमेश्वर है; परब्रह्म, जो सदा मुक्त है और जिस तक हम आत्मसमर्पण द्वारा पहुच सकते हैं। वह अपने अनुभव द्वारा उस सत्य को वाणी द्वारा प्रकट करता है, जिसे पहले उन ऋषियों ने प्रकट किया था, उन्होनें उसे देखा था और जो उसके साथ मिलकर एक हो गए थे। रहस्यपूर्ण ज्ञान परमात्मा द्वारा प्रकट किया जाता है और ऋषि लोग उसके साक्षी हैं और अर्जुन अपने अनुभव द्वारा उसका सत्यापन करता है (उसकी सत्यता की पुष्टि करता है।) ऋषियों द्वारा बताए गए अमूर्त सत्य अब देदीप्यमान अन्तज्र्ञान बन जाते हैं, व्यक्ति के समूचे अस्तित्व के दीप्तिमान् अनुभव।
 
14.सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।
हे केशव (कृष्ण), जो कुछ तू कहता है, मैं उस सबको सत्य मानता हू। हे स्वामी, मेरे व्यक्त रूप को न तो देवता जानते हैं और न दानव।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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