भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 204

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है

   
28.यथा नदीनां बहवोअम्बुवेगाः,
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा,
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।
जिस प्रकार नदियों की अनेक वेगवती धाराएं समुद्र की ओर दौड़ती चली जाती हैं, उसी प्रकार ये नरलोक के वीर योद्धा तेरे लपटें उगलते हुए मुखों में घुसे जा रहे हैं।
 
29.यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-
स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।
जिस प्रकार पतंगे जोर से जलती हुई आग पर अपने विनाश के लिए तेजी से झपटते हुए आते हैं, उसी प्रकार ये लोग अपने विनाश के लिए झपटते हुए तेरे मुखों में घुस रहे हैं।
ये प्राणी अपने अज्ञान के कारण अन्धे होकर अपने विनाश की ओर दौड़ रहे हैं और दैवीय नियन्त्रक इस सबको होने दे रहा है, क्यों कि वे सब अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं। जब हम किसी कर्म को करने के लिए तत्पर होते हैं, तो हम उसके परिणामों के लिए भी उद्यत रहते हैं। स्वतन्त्र क्रियाएं हमें उनके परिणामों का वशवर्ती बना देती हैं। क्यां कि यह कारण और कार्य का नियम दैवीय मन की अभिव्यक्ति है, इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि ब्रह्म इस नियम को कार्यान्वित कर रहा है। लेखक विश्व-रूप की धारणा द्वारा इस बात को स्पष्ट करता है कि किस प्रकार अपनी विशालता, सुन्दरता और आतंक के सहित सारा ब्रह्माण्ड, सारे देवता, महात्मा, पशु और पौधे परमात्मा के जीवन की समृद्धि के अन्दर ही हैं। सबको अपने अन्दर रखते हुए परमात्मा अपने-आप से बाहर नहीं जा सकता। हम मनुष्य-प्राणी, जो तार्किक ढंग से विचार करते हैं कभी एक विषय को लेकर व्यस्त रहते हैं और कभी किसी दूसरे विषय को लेकर। हम एक के बाद एक विषय पर विचार करते हैं, परन्तु दैवीय मन सब बातों को एक ही समझता है। उसके लिए न कोई अतीत है और न कोई भविष्यत्।
 
30.लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता-
ल्लोकान्समग्रान्वदनैज्र्वलद्धिः।
तेजोभिरापूयं जगत्समग्रं,
भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।।
अपने जलते हुए मुखों से सब ओर के लोकों को निगलता हुआ तू उन्हें चाट रहा है। हे विष्णु, तेरी अग्निमय किरणें इस सारे संसार को भर रही हैं और इसे अपने प्रचण्ड तेज से झुलसा रही हैं।
 
31.आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोअस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं,
न हि प्रजानामि तब प्रवृत्तिम्।।
मुझे बता कि इतने भयानक रूप वाला तू कौन है। देवताओं में श्रेष्ठ, तुझको प्रणाम है। दया कर। मैं जानना चाहता हूं कि तू आदिदेव कौन है, क्योंकि मैं तेरे कार्यकलाप को नहीं जानता।
शिष्य गम्भीरतर ज्ञान की खोज करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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