भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 206

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है

   
निमित्तमात्रम्: केवल कारण। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक दैवीय पूर्वनिर्णयन के सिद्धान्त का समर्थन करता है और व्यक्ति की नितान्त असहायता और क्षुद्रता तथा उसके संकल्प और प्रयत्न की व्यर्थता की ओर संकेत करता है। निश्चय पहले ही किया जा चुका है और अर्जुन उसे बदलने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। वह परमात्मा के हाथों में शक्तिहीन उपकरण-भर है और फिर भी इसमें यह ध्वनि है कि परमात्मा स्वेच्छाचारी और मनमौजी नहीं है अपितु न्यायी और प्रेममय है। इन दोनों विचारों का मेल किस तरह बैठाया जाए? यहां पर पूर्वनिर्णय करने वाले और एकमात्र कार्य करने वाले परमात्मा का दैवीय विचार प्रकट किया गया है, जो हममें उस परमात्मा पर पूर्णतया आश्रित होने का भाव जगाता है, जो ’बिलकुल अन्य’ है और जो हमारे विरुद्ध परम प्रतिपक्ष के रूप में विद्यमान है। परमात्मा की शक्ति का एक तीव्र अन्तज्र्ञान यहां पर प्रकट होता है, जैसा कि वह जौब में और पौल में प्रकट हुआ है: ’’क्या बनाई गई वस्तु अपने निर्माता के सामने खड़ी होकर कह सकती है कि तूने तुझे ऐसा क्यों बनाया है?’’
हमें सारी विश्व की प्रक्रिया को एक पूर्वानिर्धारित योजना का उद्घाटनमात्र, पहले से तैयार सिने-कथा का अनावरणमात्र, समझने की आवश्यकता नहीं है। लेखक यहां पर मानवीय कर्मों की अभविष्यदर्शननीयता का खण्डन उतना नहीं कर रहा, जितना कि वह शाश्वतता के अर्थ को जोर देकर कह रहा है, जिसमें कि काल के सब-अतीत, वर्तमान और भविष्य के सब-क्षण दैवीय आत्मा के लिए वर्तमान ही होते हैं। काल में विकास के प्रत्येक क्षण की प्रगतिशील नवीनता दिव्य शाश्वतता के साथ असंगत नहीं है।परमात्मा के विचार मानवीय उपकरण द्वारा ही क्रिया में परिणत होते हैं। यदि हम समझदार हैं, तो हम इस प्रकार कार्य करते हैं कि परमात्मा के हाथों में उपकरण बन जाते हैं। हम परमात्मा को हमारी आत्मा को अपने में लीन कर लेने देते हैं और अपने अहंभाव का कोई चिन्हृ शेष नहीं रहने देते। हमें उसके आदेशों को ग्रहण करना होगा और उसकी इच्छा का पालन यह कहते हुए करना होगा: ’’तेरी इच्छा में ही मेरी शान्ति है’’ ; ’’पिता, मैं अपनी आत्मा को तेरे हाथों मे सौंपता हूं।’[१]अर्जुन को यह अनुभव करना चाहिए: ’’तेरी इच्छा के सिवाय अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। केवल तू ही कर्ता है और मैं तो केवल उपकरण-भर हूं।’’ युद्ध की डरावनी विभीषिका उसमें विरक्ति जगाती है। मानवीय प्रमापों के अनुसार परखा जाए, तो यह समझ में आने वाली बात नहीं लगती, परन्तु जब मानों सर्वशक्तिमान्, परमात्मा के प्रयोजन को प्रकट करने के लिए पर्दा उठा दिया जाता है, तो वह उसके लिए राजी हो जाता है। अब उसके लिए इस बात का महत्व नहीं रहता कि उसकी अपनी इच्छा क्या थी, या वह इस संसार में या परलोक में क्या पाने की आशा रख रखता है। देशकालमय इस संसार के पीछे और इसके अन्दर तक व्याप्त, परमात्मा का एक रचनात्मक प्रयोजन है। हमें उस सर्वोच्च इरादे को समझना होगा और उसकी सेवा में ही सन्तोष मानना होगा। प्रत्येक कार्य स्वयं उससे बहुत परे की किसी वस्तु का प्रतीक है।
 
34.द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च,
कर्ण तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्व जहि मा व्यथिष्ठा,
युद्धस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।
तू द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य वीर योद्धाओं को मार डाल, जो मेरे द्वारा पहले ही मार डाले गए हैं। डर मत। युद्ध कर। तू युद्ध में शत्रुओं को अवश्य जीत लेगा।मया हतान्: जिनकी मृत्यु मैंने निश्चित कर दी है। परमात्मा उनके जीवनों की दिशा को और उनके लिए नियत लक्ष्य को भी जानता है। संसार में ऐसी तुच्छ-से-तुच्छ और क्षुद्र भी कोई वस्तु नहीं है, जो परमात्मा द्वारा पहले ही आदिष्ट या अनुमत न हो, यहां तक कि किसी छोटी-सी चिड़िया की मृत्यु भी नहीं।अर्जुन से कहा गया है कि वह विधाता के पद को संभाल ले। बाह्यतः वह प्रकृति का स्वामी होगा और आन्तरिक दृष्टि से वह सब सम्भावित घटनाओं से ऊपर हो जाएगा।
 
संजय उवाच
35.एतच्छुत्वा वचनं केशवस्य,
कृताज्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं,
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य।।
संजय ने कहा: केशव (कृष्ण) के इन वचनों को सुनकर कांपते हुए किरीटी (अर्जुन) ने हाथ जोड़कर कृष्ण को नमस्कार किया और फिर भय से काँपते हुए प्रणाम करके रुंधी हुई वाणी में कृष्ण से कहा;रूडोल्फ ओटो ने इस सारे दृश्य को धर्म में दिव्यभाव के स्थान के, महान् रहस्य के, उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। यह हमारे सम्मुख परमात्मा के लीकोत्तर पक्ष को प्रस्तुत करता है।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’ ल्यूक, 23, 46

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