भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 209
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है
45.अदृष्टपूर्व हृषितोअस्मि दृष्टवा,
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं,
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।
(45) मैंने वह रूप देखा है, जिसे पहले किसी ने कभी नहीं देखा और मैं इसे देखकर आनन्दित हुआ हूं, परन्तु मेरा हृदय भय से कांप रहा है। हे प्रभु मुझे अपना दूसरा (पहला) रूप दिखा और हे देवताओं के देवता, हे संसार के आश्रय, तू मुझ पर प्रसन्न हो।लेकातीत और सार्वभौम आत्मा का यह रूप ही, जिसके कुछ पक्ष इनते भयावह हैं, सब-कुछ नहीं है, अपितु व्यक्तिक परमात्मा का, परमेश्वर के मध्यवर्ती प्रतीक का, भी एक रूप है, जो भयभीत मत्र्य के लिए बहुत ही आश्वासन देने वाला है। अर्जुन, जो प्रकाश की उस चैधिया देने वाली चमक को सह पाने में असमर्थ है, जो कृष्ण के सम्पूर्ण अस्तित्व को ही समाप्त कर देती है, कुछ अपेक्षाकृत अधिक प्रिय-रूप देखना चाहता है। जो प्रकाश सदा लोक-लोकान्तरों से परे चमकता रहता है, वही अन्दर विद्यमान प्रकाश भी है, जो उसके अपने हृदय में विद्यमान गुरु और मित्र है।
46.किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन,
सहस्त्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।
मैं तुझे फिर पहले की ही भांति किरीट धारण किए, गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूं। हे सहस्त्र बाहुओं वाले और विश्व-रूप, तू फिर अपना चतुर्भुज रूप धारण कर ले।अर्जुन कृष्ण से विष्णु का रूप धारण करने को कह रहा है, जिस विष्णु का कि कृष्ण को अवतार माना जाता है।
भगवान् की कृपा और आश्वासन
श्रीभगवानुवाच
47.मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं,
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं,
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।
श्री भगवान् ने कहा:हे अर्जुन, मैंने प्रसन्न होकर अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा तुझे यह परम रूप दिखाया है, जो तेजोमय, सार्वभौम, असीम और आद्य (सबसे पहले का) है, जिसे तेरे सिवाय और तुझसे पहले और किसी ने नहीं देखा।यह दर्शन मनुष्य की साधना का अन्तिम लक्ष्य नहीं है; यदि ऐसा होता, तो गीता यहीं पर समाप्त हो जाती। इस क्षणिक दर्शन को साधक का एक स्थायी अनुभव बनना होगा। समाधि धार्मिक जीवन का न तो अन्तिम लक्ष्य ही है और न सारभूत तत्व ही। चकाचैंध कर देने वाली कौंध, भावोल्लासमय उड़ान को स्थायी श्रद्धा में रूपान्तरित किया जाना चाहिए। अर्जुन इस रोमांचकारी दृश्य को, जो कि उसने देखा है, अब भूल नहीं सकता, परन्तु उसे इसे अपने जीवन में क्रियान्वित करना है। दिव्य दर्शन केवल मार्ग खोलता है; यह आगे नहीं बढ़ाता। जिस प्रकार हम आंख से देखी हुई वस्तु की परख और पुष्टि अन्य इन्द्रियों के साक्ष्य द्वारा करते हैं, उसी प्रकार दिव्य दर्शन द्वारा प्राप्त ज्ञान को भी जीवन के अन्य तत्वों द्वारा पूर्ण करने की आवश्यकता होती है।
48.न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्त अहं नृलोके,
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।
हे कुरुओं में श्रेष्ठ (अर्जुन), इस मनुष्य-लोक में तेरे सिवाय अन्य किसी भी व्यक्ति द्वारा मैं न तो वेदों के द्वारा, न यज्ञों द्वारा, न दान द्वारा, न कर्मकाण्ठ की क्रियाओं द्वारा और न कठोर तपस्या द्वारा ही इस रूप में देखा जा सकता हूं।
49.मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृड्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं,
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।
मेरे इस भयानक रूप को देखकर तू घबरा मत और किंकत्र्तव्यविमूढ़ भी मत हो। भय को त्यागकर प्रसन्न मन से अब तू फिर मेरे दूसरे (पहले) रूप को देख।
संजय उवाच
50.इत्युर्जनं वासुदेवस्तथोक्त्वा,
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेनं,
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।
संजय ने कहा:वासुदेव (कृष्ण) ने अर्जुन से यह कहकर उसे फिर अपना स्वरूप दिखाया। उस महान् आत्मा वाले कृष्ण ने अपना सौम्य रूप धारण करके डरे हुए अर्जुन को सान्त्वना दी।
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