भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 215
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
अर्जुन उवाच
प्रकृति पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशवः।।
अर्जुन ने कहा :हे केशव (कृष्ण), मैं यह जानना चाहता हूं कि प्रकृति और पुरुष क्या हैं? क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय का उद्देश्य क्या है?कुछ संस्करणों में यह श्लोक प्राप्त नहीं होता। शंकराचार्य ने इस पर टीका नहीं की है। यदि इसे सम्मिलित कर लिया जाए, तो गीता के श्लोकों की कुल संख्या 701 हो जाएगी और 700 नहीं रहेगी, जो कि परम्परागत रूप से मानी हुई संख्या है। इसलिए हमने श्लोकों पर संख्या डालते हुए, इसे सम्मिलित नहीं किया।
श्रीभगवनुवाच
1.इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तिद्वदः।।
श्री भगवान् ने कहा:हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और जो मनुष्य इसको जानता है, उसे तत्व को जानने वाले लोग क्षेत्रज्ञ (क्षेत्र को जानने वाला) कहते हैं।प्रकृति अचेतन गतिविधि है और पुरुष निष्क्रिय चेतना है। शरीर वह क्षेत्र कहा जाता है, जिसमें घटनाएँ घटती हैं; वृद्धि हृास और मृत्यु सब इसमें ही होती हैं। निष्क्रिय और अनासक्त चेतन मूल तत्व, जो सब सक्रिय दशाओं के पीछे साक्षी-रूप में रहता है, यही सुपरचित अन्तर है। क्षेत्रज्ञ चेतना का प्रकाश है, सब विषयों (पदार्थों) का जानने वाला है।[१]साक्षी व्यक्तिगत शरीरधारी मन नहीं है, अपितु वह ब्रह्माण्डीय चेतना है, जिसके लिए सारा ब्रह्माण्ड ही एक विषय या पदार्थ है। यह शान्त और नित्य है और साक्षी बनकर देखने के लिए इसे इन्द्रियों और मन के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती।क्षेत्रज्ञ परमेश्वर है, जो इस संसार के विषय या पदार्थ रूप में नहीं है। वह सब क्षेत्रों में ब्रह्मा (संसार का बनाने वाला) से लेकर घास की पत्ती तक में सीमित करने वाली दशाओं द्वारा अन्य वस्तुओें से पृथक् किया जाता है, यद्यपि वह सब सीमाओं से रहित है और किसी भी प्रकार की श्रेणियों के रूप में उसकी परिभाषा नहीं की जा सकती। [२] अपरिवर्तनशील चेतना को ज्ञाता या क्षेत्रज्ञ केवल आलंकारिक रूप में(उपचारात्) कहा जाता है।जब हम मानवीय आत्मा की प्रकृति को जानने का प्रयत्न करते हैं, तो हम या तो इसे ऊपर की ओर से जानना शुरू कर सकते हैं या नीचे की ओर से; दैवीय मूल तत्व की ओर से अथवा मूल प्रकृति की ओर से। मनुष्य दुहरा, आत्मविरोधी प्राणी है; वह मुक्त भी है और दासता में बंधा हुआ भी; वह देवताओं के समान है और उसमें उसके पतन के चिन्हृ भी हैं अर्थात् वह प्रकृति में अवतीतर्ण हुआ है। पतित प्राणी के रूप में मनुष्य का निर्धारण प्रकृति की शक्तियों द्वारा होता है। वह पूर्णतया तात्विक शक्तियों, इन्द्रियों के वेगों, भय और चिन्ता से प्रेरित प्रतीत होता है। परन्तु मनुष्य की इच्छा अपनी पतित प्रकृति परविजय पाने की होती है। प्राणि-विज्ञान, मनोविज्ञान और समाज-विज्ञान जैसे वस्तु-रूपात्मक विज्ञानों ने जिस मनुष्य का अध्ययन किया है, वह एक स्वाभाविक प्राणी है और वह संसार में होने वाली प्रक्रियाओं की उपज है। परन्तु कर्ता के रूप में मनुष्य का एक और उद्गम स्थान है। वह संसार का शिशु नहीं है, वह प्रकृति है, वह प्रकृति के वस्तु-रूपात्मक सोपान-तन्त्र का अंग नहीं है, वह उसका अधीनस्थ अंश नहीं है। पुरुष या क्षेत्रज्ञ को अन्य पदार्थों या द्रव्यों में से ही एक पदार्थ नहीं माना जा सकता; उसे केवल कर्ता माना जा सकता है, जिसके अन्दर अस्तित्व का रहस्य छिपा हुआ है, जो एक व्यष्टि के रूप में सम्पूर्ण विश्व है। इसलिए वह संसार का, या अन्य किसी अंगी का एक अंश नहीं है। व्यावहारिक प्राणी के रूप में वह एक ’लाइबनिट्ज’ के शक्ति-केन्द्र की भांति हो सकता है, जो सब ओर से बन्द है और जिसमें कोई दरवाजे या खिड़कियां नहीं हैं। कर्ता के रूप में, जिसकी व्यष्टितः आवृत्ति नहीं हो सकती, सार्वभौम है। मानव-प्राणी सार्वभौम असीम और सार्वभौम विशिष्ट का एक संयोग है। अपने कर्तात्मक पहलू की दृष्टि से वह सम्पूर्ण (अंगी) का एक अंश नहीं है, अपतिु स्वयं ही सम्भाव्य सम्पूर्ण है। उसे वास्तविक रूप देना, सार्वभौमता को उपलब्ध करना मनुष्य का आदर्श है। कर्ता अपने-आप को सार्वभौम अन्तर्वस्तु से भर लेता है- अपनी यात्रा के अन्त में सम्पूर्णता में एकता को उपलब्ध कर लेता है। मनुष्य की विलक्षणता दो आंखों और दो हाथों के सामान्य नमूने पर बना होने में नहीं है, अपितु उसके आन्तरिक मूल तत्व में है, जो जीवन की एक गुणात्मक अन्तर्वस्तु की सृजनात्मक प्राप्ति के लिए उसे प्रेरित करता है। उसमें एक अद्भुत विशेषता हे, जो असामान्य है। आदर्श व्यक्तित्व बेजोड़ (अद्वितीय) रूप वाला प्राणी बन जाता है, जो बिलकुल निराला होता है, जिसे उसी रूप में दुहराया नहीं जा सकता और न उसके स्थान पर किसी अन्य को रखा जा सकता है।
2.क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्र्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
हे भारत (अर्जुन), तू सब क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ समझ। क्षेत्र और उसके जानने वाले के ज्ञान को मैं सच्चा ज्ञान समझता हूं।शंकराचार्य का मत है कि परमेश्वर अपनी ब्रह्माण्डीय विभूतियों के कारण संसारी प्रतीत होता है, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यष्टि-आत्मा शरीर के साथ अपनी एकत्व बुद्ध से बंधा हुआ प्रतीत होता है। [३] ईसाई सिद्धान्त के अनुसार, पतन मनुष्य के अन्दर विद्यमान परमात्मा की मूर्ति को, जो कि स्वतन्त्रता है, भूल जाना है और बाह्य वस्तुओं में फंस जाना है, जो कि परवशता है। तत्वतः मनुष्य प्रकृति का अंश नहीं है, अपितु आत्मा का अंश है, जो प्रकृति की अविरामता में हस्तक्षेप करता है।
3.तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्य यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।
अब मुझसे संक्षेप में यह सुन कि क्षेत्र क्या है, वह किस प्रकार का है, उसमें क्या-क्या परिवर्तन होते हैं और वह कहां से आया है और वह (क्षेत्र को जानने वाला) क्या है और उसकी शक्तियां क्या हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साथ ही देखिए श्वेताश्वतर उपनिषद्; 6, 16; और मैत्रायणी उपनिषद् 2, 5
- ↑ क्षेत्रज्ञं मां परमेश्वरम् असंसारिणं विद्धि जानीहि सर्वक्षेत्रेषु यः क्षेत्रज्ञः ब्रह्मादिस्तग्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तं तं निरस्तसर्वोपाधिभेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययगोचरं विद्धि। - शंकराचार्य
- ↑ तत्रैवं सति क्षेत्रज्ञस्येश्वरस्यैव सतोअविद्याकृतोपाधिभेदतः संसारित्यम् इव भवति यथा देहाद्यात्मत्वमृ आत्मनः।