भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 218

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अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

   
16.अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।।
वह अविभक्त (अविभाज्य) है और फिर भी वह प्राणियों में विभक्त हुआ-सा प्रतीत होता है। यह समझना चाहिए कि वह सब प्राणियों का भरण-पोषण करता है, उनका विनाश करता है और फिर नये सिरे से उन्हें उत्पन्न करता है।डायनोसियस से तुलना कीजिएः ’विभक्त वस्तुओं में अविभक्त’। सब वस्तुएं उसी से निकलती हैं, उसी द्वारा संभाली जाती हैं और फिर वापस उसी में ले जी जाती हैं।
 
17.ज्योतिषामपि तज्जोतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।
वह ज्योतियों की भी ज्येाति है। वह अन्धकार से परे कहा जाता है। वह ज्ञान है; ज्ञान का विषय है और ज्ञान का लक्ष्य है- वह सबके हृदय में स्थित है।प्रकाश-स्वरूप परमात्मा सब प्राणियों के हृदय में निवास करता है। इनमें से कई स्थल उपनिषदों के उद्धरण हैं। देखिए श्वेताश्वतर उपनिषद् 3, 8 और 16; ईशापनिषद्, 5; मुण्डकोपनिषद् 13, 1, 7; बृहदारण्यक उपनिषद्, 4, 4, 16।

ज्ञान का फल
18.इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्द्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।
इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञान के विषय का संक्षेप में वर्णन कर दिया गया है। जो मेरा भक्त इस बात को समझ लेता है, वह मेरी दशा को प्राप्त होने योग्य बन जाता है।जब भक्त नित्य अन्तर्वासी ब्रह्म को देख लेता है, तब वह दिव्य स्वभावको धारण कर लेता है, जिसकी विशेषताएं स्वतन्त्रता, पे्रम और समानता है। ’’वह मेरी दशा में पहुंच जाता है।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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