भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 220
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
मुक्ति के विभिन्न मार्ग
24.ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।
कुछ लोग आत्मा द्वारा आत्मा में आत्मा को उपासना (ध्यान) द्वारा देखते हैं; कुछ अन्य लोग ज्ञानमार्ग द्वारा और कुछ अन्य लोग कर्ममार्ग द्वारा इस प्रकार आत्मा का दर्शन करते हैं।यहां सांख्य शब्द का प्रयोग ज्ञान के लिए हुआ है।
25.अन्ये त्वेवमजान्तः श्रृत्वान्येभ्य उपासते।
तेअपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रृतिपरायणाः।।
परन्तु कुछ अन्य लोग इस बात को (योग के इन मार्गों को) न जानते हुए अन्य लोगों से सुनकर उपासना करते हैं; और वे भी कुछ उन्होंने सुना है, उस पर आस्था रखते हुए मृत्यु के परे पहुंच जाते हैं।
जो लोग गुरुओं[१] की प्रामाणिकता पर भरोसा रखते हैं और उनके उपदेश के अनुसार उपासना करते हैं, उनके हृदय भी परमात्मा की दया के प्रति खुल जाते हैं और इस प्रकार वे शाश्वत जीवन को प्राप्त कर लेते हैं।
26.यावत्सज्जायते किच्चित्सत्वं स्थावरजगमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।
हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), तू इस बात को समझ ले कि जो कोई भी स्थावर या जंगम वस्तु उत्पन्न हुई है, वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग द्वारा ही उत्पन्न हुई है।सम्पूर्ण जीवन आत्म और अनात्म के मध्य होने वाला व्यापार है। शंकराचार्य के मतानुसार इन दोनों का संयोग अध्यास के ढंग का है, जिसमें एक को गलती से दूसरा समझ लिया जाता है। जब यह भ्रम दूर हो जाता है, तब बन्धन समाप्त हो जाता है।
27.समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।
जो व्यक्ति परमात्मा को सब वस्तुओं में समान रूप से निवास करता हुआ और उन वस्तुओं के नष्ट होने पर भी उसे नष्ट न होता हुआ देखता है,वही वस्तुतः देखता है।जो कोई सब वस्तुओं में विश्वात्मा को देखता है, वही सचमुच देखता है, और अपने-आप भी सार्वभौम बन जाता है।’जब वस्तुएं नष्ट होती हैं, तब भी वह कभी नष्ट नहीं होता।’ यदि सब वस्तुएं विकासात्मक पुष्टि की एक अविराम दशा में विद्यमान हैं, तब परमात्मा परिवर्तनहीन नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, बर्गसन परमात्मा को संसार में पूर्णतया अन्तव्र्यापी मानता है, जो कि संसार के परिवर्तनों के साथ परिवर्तित हेाता रहता है। विकासशील परमात्मा का, जिसकी कि विश्व के विकास की प्रक्रिया के एक अंश-रूप में कल्पना की गई है, तब अस्तित्व ही समाप्त हो गाएगा, जब विश्व की गति समाप्त हो गाएगी, तापगतिविज्ञान (थर्मोडाइनैमिक्स) के दूसरे नियम में एक घटनाहीन निष्प्रवाहता और पूर्ण विश्राम की दशा ध्वनित की गई है। एक विकसमान या वर्धमान परमात्मा संसार का स्त्रष्टा या उद्धारकर्ता नहीं हो सकता। वह धार्मिक भावनाओं का समुचित विषय नहीं है। इस श्लोक में गीता हमें विश्वास दिलाती है कि जब संसार का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तब भी परमात्मा जीवित रहता है और बना रहता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रुतिपरायणाः, केवलपरोपदेशप्रमाणाः स्वयं विवेकरहिताः। - शंकराचार्य।