भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 234

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अध्याय-16
दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव दैवीय स्वभाव वाले लोग

   
कत्र्तव्य के लिए शास़्त्र प्रामाणिक ग्रन्थ है
23.यः शास्त्रविधिमुत्सृजज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
परन्तु जो व्यक्ति शास्त्र के नियम को छोड़ देता है और अपनी इच्छओं के अनुसार कार्य करता है, उसे न तो पूर्णता (सिद्धि) प्राप्त होती है, न सुख प्राप्त होता है और न सर्वोच्च लक्ष्य ही प्राप्त होता है।

24.तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।
इसलिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसके निर्धारण के लिए तू शास्त्र को ही प्रमाण मान। शास्त्रों मे बताए गए नियमों को जानकर तुझे इस संसार में अपना काम करते जाना चाहिए। शास्त्र: धर्मग्रन्थ।[१] इच्छा की प्रेरणा के स्थान पर सही कर्म का ज्ञान आना चाहिए। परन्तु जब आत्मा की स्वतत्रता का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त होता है, तब व्यक्ति सहज प्रवृत्ति द्वारा कार्य नहीं करता और न नियमों के अनुसार ही कार्य करता है, अपितु सम्पूर्ण जीवन की आत्मा मे एक गम्भीर अन्तर्दृष्टि द्वारा कार्य करता है। सामान्यतया हम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं, और उसके बाद अपने आचरण को नियत सामाजिक विधानों के अनुसार नियमित करते हैं, और अन्त मे जाकर जीवन के अर्थ के गम्भीरतर उद्देश्य को समझते हैं और उसके मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करते हैं। इच्छा की प्रेरणा (18, 59), नियमों द्वारा मार्गदर्शन (16, 24) और आत्मा की स्वतः स्फर्तता (18, 64, 11, 33) ये तीन सोपान (दशाएं) हैं।
इति ’ ’ ’ दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोअध्यायः।
यह है ’दैवीय और आसुरीय सम्पदाओं के भेद का योग’ नामक सोलहवां अध्याय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: शास्ति यत्साधनोपायं, पुरुषार्थस्य निर्मलम्। तथैव बाधनोपायं तत्शास्त्रामिति कथ्यते।।

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