भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 239
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए
अर्जुन उवाच
1.संन्यासस्य महाबाहो तत्वामिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।
अर्जुन ने कहा: हे महाबाहु (कृष्ण), मैं सन्यास और त्याग का पृथक्-पृथक् सच्चा रूप जानना चाहता हूं, हे हृषीकेष (कृष्ण), हे केशिनिषूदन (कृष्ण)! (वह मुझे बता।)
गीता में कर्म के संन्यास पर नहीं, अपितु इच्छा का त्याग करके कर्म करते रहने पर जोर दिया गया है। यही सच्चा संन्यास है। इस श्लोक में ’संन्यास’ शब्द का प्रयोग सब कर्मों के परित्याग के लिए और ’त्याग’ शब्द का प्रयोग सब कर्मों के फल के त्याग के लिए किया गया है। मुक्ति कर्म द्वारा या सन्तान द्वारा या धन नहीं मिलती, अपितु त्याग द्वारा मिलती है।[१]गीता का कथन है कि मुक्त आत्मा मुक्ति के बाद भी सेवा में लगी रह सकती है और गीता उस दृष्टिकोण का विरोध करती है, जिसका यह मत है कि सारा कर्म अज्ञान से उत्पन्न होता है और जब ज्ञान का उदय हो जाता है, तब कर्म समाप्त हो जाता है। गीता का गुरु इस दृष्टिकोण को, कि जो व्यक्ति कर्म करता है, वह बन्धन में फंसा हुआ है और जो स्वतंन्त्र (मुक्त) है और वह कर्म कर ही नहीं सकता, गलत मानता है।
श्रीभगवानुवाच
2.काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।
श्री भगवान् ने कहा: बुद्धिमान् लोग ’सन्यास’ का अर्थ इच्छा द्वारा प्रेरित कर्मों का त्याग समझते हैं; सब कर्मों के फलों के त्याग को विद्वान् लोग ’त्याग’ कहते हैं।जड़ता या निष्क्रियता आदर्श नहीं है। हमारे सम्मुख जो आदर्श रखा गया है, वह स्वार्थपूर्ण इच्छा के बिना और लाभ की आशा के बिना, इस भावना के साथ किया गया कर्म है कि ’मैं कर्ता नहीं हूं; मैं अपने-आप को सार्वभौम आत्मा के प्रति समर्पित कर रहा हूं।’ गीता कर्मों के पूर्ण सन्यास की शिक्षा नहीं देती, अपितु सब कर्मों को निष्काम कर्म अर्थात् इच्छारहित कर्म में बदल डालने की शिक्षा देती है।परन्तु शंकराचार्य का मत है कि यहां जिस प्रकार के त्याग की शिक्षा दी गई है, वह केवल कर्मयोगियों पर लागू होती है और ज्ञानियों के लिए कर्मों का पूर्ण परित्याग अत्यावश्यक है। शंकराचार्य का मत है कि ज्ञान और कर्म साथ-साथ रह ही नहीं सकते।
3.त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।
कुछ विद्वान् लोगों का कथन है कि ’कर्म को दोष समझकर त्याग देना चाहिए,’ जब कि अन्य विद्वानों का कथन है कि ’यज्ञ, दान और तप के कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए।’
4.निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम्।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।
हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), अब तू मुझसे त्याग के सम्बन्ध में सच्चाई को सुन; हे मनुष्यों में श्रेष्ठ (अर्जुन), त्याग तीन प्रकार का बतया गया है।
रामानुज ने त्याग को (1) फल का त्याग, (2) इस विचार का त्याग कि आत्मा कर्ता है और इस प्रकार आसक्ति का भी त्याग और (3) यह अनुभव करते हुए कि सब कर्मों का करने वाला परमात्मा है, कर्तृत्व के सम्पूर्ण विचार का त्याग-इन तीन भागों में बाटां है।
5. यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।
यज्ञ, दान और तप के कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए, अपितु उन्हें करते ही रहना चाहिए; क्योंकि यज्ञ, दान और तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले होते हैं।
इस दृष्टिकोण के विरुद्ध, कि सब कर्मों का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि वे बन्धन में डालने वाले हैं, गीता यह कहती है कि यज्ञ, दान और तप [२] का त्याग नहीं करना चाहिए।
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