भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 245

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अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
मनुष्य के स्वभाव और स्वधर्म द्वारा नियत किए गए, विभिन्न कर्त्तव्य
40.न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्यं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिगुणैः।।
न तो इस पृथ्वी पर और न स्वर्ग में देवताओं में ही कोई ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति से उत्पन्न हुए इन तीन गुणों से मुक्त हो।
 
41.ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभ्भावप्रभवैर्गुणैः।।
हे शत्रुओं को जीतने वाले (अर्जुन), ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों की गतिविधियां उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की होती हैं।
चार वर्णां वाली यह व्यवस्था हिन्दू समाज की कोई अपनी विलक्षण वस्तु नहीं है। यह सब जगह लागू होती है। यह वर्गीकरण मानव-स्वभाव के प्रकारों पर आधारित है। चारों वर्णों में से प्रत्येक की कुछ सुनिर्दिष्ट विशेषताएं हैं, भलेही उन्हें आत्यन्तिक या अनन्य नहीं समझना चाहिए। ये सदा जन्म (आनुवंशिकता) द्वारा निर्धारित नहीं होतीं।गीता का उपयोग इस समय विद्यमान समाज-व्यवस्था के, जो कि बहुत ही अनम्य (लचकहीन) और गड़बड़झाले की है, समर्थन के लिए नहीं कहा जा सकता। गीता चार वर्णां के सिद्धान्त को अपनाती है और उसके क्षेत्र और अर्थ को विस्त्रृत करती है। मनुष्य का बाह्यय जीवन ऐसा होना चाहिए, जो उसके आन्तरिक अस्तित्व को अभिव्यक्त करता हो; ऊपरी तल आन्तरिक गहराई को प्रतिविम्बित करने वाला होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति का एक आना जन्मजात स्वभाव होता है और उसको अपने जीवन में प्रभावी बनाना उसका कत्र्तव्य, स्वधर्म है। प्रत्येक व्यक्ति भगवान् का एक केन्द्र-बिन्दु (फोकस), ब्रह्म का एक अंश है। उसकी भवितव्यता अपने जीवन में इस दिव्य सम्भावना को साकार करना है। विश्व की एक आत्मा ने संसार में आत्माओं की विविधता उत्पन्न की है, परन्तु ब्रह्म का विचार हमारी सारभूत प्रकृति, हमारे अस्तित्व का सत्य, हमारा स्वभाव है; गुणों का उपकरण (यन्त्र) हमारा स्वभाव नहीं है, जो कि अभिव्यक्ति का माध्यम-मात्र है। यदि प्रत्येक व्यक्ति उस काम को करे, जो उसके लिए उपयुक्त है, यदि वह अपने स्वभाव के विधान का, अपने स्वधर्म का, पालन करे, तो परमात्मा अपने-आप को मानव-मत्रियों की स्वतंत्र इच्छा-शक्तियों में अभिव्यकत् कर सकेगा। संसार के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, वह सब संघर्ष के बिना हो जाएगा। परन्तु मनुष्य वह काम कम ही करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए। जब वे यह समझकर कि वे सम्पूर्ण जगत् की योजना को जानते हैं, घटनाओं का निर्धारण करना शुरू कर देते हैं, तब वे इस धरती पर शरारत करने लगते हैं। जब तक हमारा कर्म हमारे स्वभाव के अनुकूल होता रहता है, तब तक हम धर्मातमा रहते हैं; और यदि हम उसे परमात्मा को समर्पित कर दें, तो हमारा कर्म आध्यात्मिक पूर्णता का एक साधन बन जाता है। जब व्यक्ति में विद्यमान ब्रह्म पूरी तरह प्रकट हो जाता है, तब वह शाश्वतं पद्य अव्ययम् को, प्राप्त कर लेता है।[१] मानव-जीवन हमारे सम्मुख जो समस्या प्रस्तुत करता है, वह हमारे अपने सच्चे आत्म को खोज निकालने और उसके सत्य के अनुसार जीवन-यापन करने की समस्या है; अन्यथा हम अपने स्वभाव के प्रति पाप कर रहे हैं। स्वभाव पर इतना जोर देना इस बात का सूचक है कि मानव-प्राणियों को व्यष्टियों के रूप में देखा जाना चाहिए और प्रकारों (वर्गो) के रूप में नहीं। अर्जुन को बताया गया है कि जो व्यक्ति एक योद्धा के रूप में वीरतापूर्वक युद्ध करता है, वह ज्ञान की शान्ति के लिए परिपक्व बन जाता है।स्वभाव के मोटे तौर पर चार प्रकार हैं और उनके अनुरूप ही सामाजिक जीवन के भी चार प्रकार हैं। इन चार वर्णों का निर्धारण जन्म या रंग द्वारा नहीं होता, अपितु उन मनोवैज्ञानिक विशेषताओं द्वारा होता है, जो हमें समाज के कुछ सुनिश्चित कत्र्तव्यों के लिए उपयुक्त बनाती हैं।
 
42.शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
प्रशान्ता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहनशीलता, ईमानदारी, ज्ञान, विज्ञान और धर्म मंे श्रृद्धा, ये ब्राह्मण के स्वाभाविक गुण हैं।जो लोग ब्राह्मण-वर्ण के हैं, उनसे आशा की जाती है कि उनमें मानसिक और नैतिक गुण होंगे। तुलना कीजिए, धम्मपद, 393: ’’बडे़-बड़े बालों से या वंश से या उच्च कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता। जिसमें सत्य और धर्म है, वही ब्राह्मण है।’’ सत्ता अन्तर्दृष्टि को दूषित और अन्धा कर देती है। अनियन्त्रित सत्ता मानसिक शान्ति के लिए घातक है। इसलिए ब्राह्मण प्रत्यक्ष सत्ता को त्याग देते हैं और आग्रह तथा प्रेम द्वारा एक सामान्य नियन्त्रण बनाए रखते हैं और सत्ता को धारण करने वाले लोगों को पथभ्रष्ट होने से बचाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18, 56

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