भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 248
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए
51.बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त होकर, अपने-आप को दृढ़तापूर्वक संयम से रखकर, शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों को त्यागकर और राग और द्वेष को छोड़कर;
52.विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समपाश्रितः।।
एकान्त में निवास करता हुआ, अल्प आहार करता हुआ, वाणी, शरीर और मन को संयम मंे रखता हुआ और सदा ध्यान और एकाग्रता में लीन रहता हुआ और वैराग्य में शरण लिए हुए;ध्यानयोग को यहां द्वन्द्व समास माना जाता है, जिसका अर्थ है ’आत्मा के स्वभाव के विषय में ध्यान और उस पर मानसिक एकाग्रता।’ - शंकराचार्य।
53.अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
और अहंकार, बल, घमण्ड, इच्छा,क्रोध, और सम्पत्ति को त्यागकर, ममत्व की भावना से रहित और शान्त चित्त वाला वह ब्रह्म के साथ एकाकार होने के योग्य हो जाता है।अत्तार ने इब्राहीम एधम की एक उक्ति उद्धृत की हैः ’’साधक के लिए आनन्द का द्वार खुले, इससे पहले उसके हृदय से तीन आवरण हटने चाहिए। पहला आवरण तो यह है कि यदि उसे दोनों लोकों का साम्राज्य एक शाश्वत उपहार के रूप में दिया जाने लगे, तो भी वह आनन्दित होता है, वह लोभी; और लोभी मनुष्य को परमात्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। दूसरा आवरण यह है कि यदि उसके पास दोनों लोकों का साम्राज्य हो और वह उससे ले लिया जाए, तो उसे इस प्रकार अपने दरिद्र हो जाने पर शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि यह क्रोध का चिन्हृ है; और जो क्रुद्ध होता है वह कष्ट पाता है। तीसरा आवरण यह है कि उसे किसी भी स्तुति या पक्षपात के कारण बहकना नहीं चाहिए, क्योंकि जो कोई बहकता है उसकी आत्मा क्षुद्र होती है और इस प्रकार व्यक्ति की आंखों पर (सत्य की ओर से) पर्दा पड़ा रहता है। साधक को उच्च मन वाला होना चाहिए।’’ब्राउन: ए लिटरेरी हिस्ट्री आॅफ पर्शिया, खण्ड 1, (1902), पृ0 425
सर्वोत्तम भक्ति
54.ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काड्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्धक्तिं लभते पराम्।।
ब्रह्म के साथ एकाकार होकर और प्रशान्तात्मा बनने पर उसे न तो कोई शोक होता है और न कोई इच्छा ही होती है। सब प्राणियों को समान समझता हुआ वह मेरी सर्वोच्च भक्ति को प्राप्त कर लेता है यह श्लोक इस बात का एक और संकेत है कि गीता की दृष्टि में व्यक्ति का निर्गुण ब्रह्म में विलीन हो जाना ही सर्वोच्च स्थिति नहीं है, अपितु उस भगवान् की भक्ति सर्वोच्चत स्थिति है, जो अपने अन्दर अचल और चल दोनों को मिलाए हुए है।
55.भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वतः।
ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
भक्ति के द्वारा वह इस बात को जान लेता है कि मैं वस्तुतः कौन हूं और कितना हूं; तब तत्व-रूप में मुझे जान लेने के बाद वह मुझमें प्रवेश करता है।ज्ञाता अथवा भक्त परमेश्वर, पूर्णपुरुष, के साथ आत्मज्ञान और आत्मानुभाव में एकाकार हो जाता है। ज्ञान और भक्ति दोनों का एक ही लक्ष्य है। ब्रह्म बनने का अर्थ है- परमात्मा से प्रेम करना, उसे पूरी तरह जानना और उसमें प्रवेश कर जाना।
इस शिक्षा का अर्जुन के मामले में प्रयोग
56.सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वद्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।
मेरी शरण में आकर निरन्तर सब प्रकार के कर्मों को करता हुआ वह मेरी कृपा से शाश्वत और अमर पद प्राप्त करता है।कर्मयोग का भी लक्ष्य यही है। इन तीन श्लोकों में लेखक बताता है कि ज्ञान, भक्ति और कर्म साथ-साथ ही रहते हैं। बात केवल इतनी है कि कर्म इस ज्ञान के साथ किया जाता है कि प्रकृति ब्रह्म की शक्ति है और व्यक्ति परमात्मा का केवल एक उपकरण (निमित्त) है। अपने मन को परब्रह्म में लगाकर और उसकी कृपा से, चाहे वह कुछ भी क्यों न करता रहे, वह शाश्वत रूप से परम धाम में निवास करता है।
« पीछे | आगे » |