भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 253

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
69.न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिश्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
मनुष्यों में उसके अधिक मेरा प्रिय कार्य करने वाला और कोई नहीं है; और संसार में उससे बढ़कर मुझे और कोई प्रिय होगा भी नहीं।वे महात्मा लोग, जो संसार के सागर को पार कर चुके हैं और जो दूसरे लोगों को उसे पार करने में सहायता देते हैं, परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय हैं।

70.अध्येष्यते च य इमं धम्र्य संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।
और जो व्यक्ति हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, मैं ऐसा समझता हूं कि वह ज्ञानयज्ञ द्वारा मेरी पूजा रहा होगा।
 
71.श्रद्धावाननसूयश्य श्रृणुयादपि यो नरः।
सेअपि मुक्तः शुभांल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मयाम्।।
और जो मनुष्य श्रद्धा के साथ बिना ईष्यां किये इस संवाद को सुनेगा, वह भी मुक्त होकर पुण्यात्माओं के आनन्दमय लोकों में पहुंच जाएगा।

72.कच्चिदेतच्छतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनज्जय।।
हे पार्थ (अर्जुन), क्या तूने एकाग्रचित होकर इस सबको सुना है? हे धनंजय (अर्जुन), क्या तेरी अज्ञान के कारण उत्पन्न घबराहट (सम्मोह) दूर हो गई है?

निष्कर्ष
अर्जुन उवाच
73.नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोअस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तब।।
अर्जुन ने कहा: हे अच्युत (कृष्ण), तेरी कृपा से मेरा मोह (भ्रम) नष्ट हो गया है और स्मृति फिर लौट आई है। अब मेरे सन्देह समाप्त हो गए हैं और में स्थिर हो गया हूं। मैं तेरे कहे के अनुसार काम करूंगा।अर्जुन अपने नियत किए गए, कर्म की ओर अभिमुख होता है, अहंकारपूर्ण मन से नहीं, अपितु आत्मज्ञान के कारण।[१] उसके भ्रम नष्ट हो गए हैं और उसके अन्दर दूर हो गए हैं। परमात्मा के चुने हुए साधन के रूप में वह संसार के स्वामी द्वारा नियत किए गए कत्र्तव्य को स्वीकार करता है। अब वह परमात्मा के आदेश के अनुसार काम करेगा। उसने इस बात को अनुभव कर लिया है कि परमात्मा ने उसे अपने प्रयोजन के लिए बनाया है, उसके अपने प्रयोजन के लिए नहीं। ठीक वस्तु का चुनाव करने की स्वतंत्रता नैतिक प्रशिक्षण पर निर्भर है। केवल अच्छाई द्वारा हम आत्मा की स्वतन्त्रता तक ऊपर उठ सकते हैं, जो हमें उस अपरिष्कृतता में से बाहर निकाल ले जाती है, जिसकी ओर शरीर का झुकाव रहता है। अुर्जन पर प्रलोभन का आक्रमण हुआ था और उसने मुक्ति देने वाली विजय की ओर जाने वाला मार्ग खोज लिया। वह अनुभव करता है कि वह परमात्मा के आदेश को पूर्ण करेगा, क्योंकि उसे बल देने के लिए परमात्मा विद्यमान है। हमारा कत्र्तव्य है कि हम इस श्लोक की भावना के अनुसार जीवन-यापन करें, ’’हे हृषीकेश, मेरे हृदय में बैठा हुआ तू जैसा मुझे आदेश देता जाता है, वैसा मैं करता जाता हूं।’’ [२] ईसा कहता है, जिसने मुझे भेजा है।’’ हमें उस प्रकार जीवन बिताना चाहिए, जिस प्रकार परमात्मा अपने शाश्वत जीवन में हमसे अपने जीवन-यापन करवाता। उसी वस्तु को चाहना, जो कुछ परमात्मा चाहता है, दिव्य जीवन का रहस्य है। जब ईसा ने चिल्लाकर कहा था कि ’यह प्याला मुझसे आगे चला जाए’, उस समय भी वह अपनी रुचि को प्रधानता दे रहा था, परन्तु जब उसने कहा कि ’तेरी इच्छा पूर्ण होगी’- ’करिष्ये वचनं तव’-तब उसने अपने पृथक् अस्तित्व को त्याग दिया और अपने-आप को उस पिता (परमात्मा) के कार्य के साथ एकरूप कर दिया, जिसने उसे भेजा था। [३]इस विकास का अर्थ है सब बहानों और चालबाजियों को त्याग देना, सब आवरणों को हटा देना, एक वस्त्रापहरण (चीरहरण), आत्मा का अपने-आप को शन्य बना देना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अज्ञानसम्मोहश आत्मस्मृतिलाभः। - शंकराचार्य।
  2. त्वया हृषीकेश हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोअस्मि तथा करोमि।
  3. मार्क 14, 32-41। ’’पिता (परमात्मा) ने मुझे जैसा आदेश दिया था, मैं वैसा करता हूं।’’- जान 14, 31

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