भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 31

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7.व्यक्तिक आत्मा

स्वाधीनता या नियतिवाद की समस्या का अर्थ केवल वहीं तक कुछ है, जहां तक उसका सम्बन्ध मानव-व्यक्तियों से है। यह समस्या उस परब्रह्म पर लागू नहीं होती, जो सब विरोधों से ऊपर है; और न यह वनस्पतियों और पशुओं की उन जातियों पर ही लागू होती है, जो मनुष्य से नीचे हैं। यदि मनुष्य केवल सहजवृति से चलने वाला सीधा-सादा प्राणी हो, यदि उसकी इच्छाएं और उसके निर्णय केवल आनुवंशिकता और परिवेश की शक्तियों के ही परिणाम हों, तब नैतिक निर्णय बिलकुल असंगत हैं। हम सिंह को उसकी भयंकरता के कारण बुरा नहीं कहते और न मेमने की, उसकी विनम्रता के लिए, प्रशंसा ही करते हैं। मनुष्य को स्वतत्रन्ता प्राप्त है।[१] जीवन के सम्पूर्ण दर्शन का वर्णन करने के बाद गुरू अर्जुन से कहता है कि उसे जैसा अच्छा जान पड़े, वैसा वह करे।[२] गीता के सारे उपदेश में मनुष्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह अच्छाई को चुने और सचेत प्रत्यन द्वारा उसे प्राप्त करें। परन्तु इस चुनाव की स्वतन्त्रता में अनेक बाधाएं भी हैं। मनुष्य एक जटिल बहुआयामी (मल्टी-डाइमेंशनल) प्राणी है, जिसके अन्दर भौतिक तत्व, जीवन, चेतना, बुद्धि और दिव्य ज्योति के विभिन्न तत्व विद्यमान हैं।
जब वह उच्चतर स्तर पर कार्य करता है, तब वह स्वतन्त्र होता है और वह अन्य तत्वों का उपयोग अपने प्रयोजन की पूर्ति के लिए करता है। परन्तु जब वह वस्तु-रूपात्मक प्रकृति के स्तर पर होता है, जब वह अनात्म से अपने भेद को पहचान नहीं पाता, तब वह प्रकृति के यन्त्रजात का दास बन जाता है। परन्तु जब वह मिथ्या रूप से अपने-आप को वस्तु-रूपात्मक विश्व के साथ एक समझ रहा होता है और यह अनुभव कर रहा होता है कि वह प्रकृति की आवश्यकताओं के अधीन है, उस समय भी वह एकदम हताश नहीं होता, क्योंकि अस्तित्व के सब स्तरों पर एक ही आत्मा काम कर रही होती है। भौतिक तत्व भी भगवान् का ही एक प्रकट रूप है। प्रकृति के निम्नतम रूपों में भी सहजता और सृजनशीलता का एक ऐसा तत्व विद्यमान है, जिसकी यान्त्रिक शक्तियों के रूप में व्याख्या नहीं की जा सकती।
हमारे अस्तित्व के प्रत्येक स्तर की एक अपनी चेतना है, उसके अपने ऊपरी विचार हैं, अनुभूति, विचार और कर्म के उसके अपने ढंग है, जो आदत से बने हुए है। जीव को अपनी अस्पष्ट और सीमित चेतना को बनाए रखने का हठ नहीं करना चाहिए क्योंकि वह भी इसकी वास्तविक प्रकृति का विकृत रूप है। जब हम इन्द्रियों का दमन कर देते हैं और उन्हें अपने वश में रखते हैं, तब आत्मा की शिखा उज्ज्वल और निर्मल रूप से जलने लगती है, ‘जैसे वायुहीन स्थान में रखा दीपक जल रहा हो।’ चेतना का प्रकाश अपने स्वाभाविक रूप में रहता है और अनुभवगम्य आत्म, जिसमें कि अनुभव के उतार-चढ़ावच लते रहते है,, बुद्धि द्वारा नियन्त्रित रहता है। इस बुद्धि में चेतना का प्रकाश प्रतिबिम्बित होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्वतन्त्र:कर्ता।–पाणिनि
  2. 18, 63

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