भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 50
“जो नारी प्रेम करती है, उसके लिए प्रेम के आवेश में प्रियतम के हृदय पर लेटना या प्रेम से प्रियतम के चरणों को सहलाना, दोनों एक-सी बातें हैं। इसी प्रकार ज्ञानी पुरूष के लिए चाहे वह समाधि में लीन रहे या पूजा द्वारा भगवान् की सेवा करे, दोनों एक-सी बातें हैं।”[१]भक्त के लिए उच्चतर प्रकार की स्वतन्त्रता भगवान् के प्रति आत्मसमर्पण कर देने में है।[२] संसार के लिए भगवान् के कार्य में भाग लेना सब भक्तों का कत्र्तव्य है।[३] “जो लोग अपने कर्त्तव्य को छोड़ बैठते हैं और केवल ‘कृष्ण-कृष्ण कहकर भगवान् का नाम जपते हैं, वे वस्तुतः भगवान् के शत्रु हैं और पापी हैं, क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए तो स्वयं भगवान् ने भी जन्म लिया था।”[४] जब भक्त सच्चे तौर पर अपने-आप को भगवान् के प्रति समर्पित कर देता है, तब पमात्मा उसके मन की प्रमुख वासना बन जाता है और तब भक्त जो भी कुछ करता है, वह परमात्मा के यश के लिए करता है। भगवद्गीता में भक्ति अनुभवातीत के प्रति सम्पूर्ण आत्मसर्मपण है। यह है भगवान् में विश्वास करना, उससे प्रेम करना, उसके प्रति निष्ठावान् होना और उसमें लीन हो जाना। यह अपना पुरस्कार स्वयं ही है। ऐसे भक्त में उच्चतम ज्ञान का सार और साथ ही साथ पूर्ण मनुष्य की ऊर्जा भी विद्यमान रहती है।[५]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
प्रियतमहृदये वा खेलतु प्रेमरीत्या,पदयुगपरिचर्या प्रेयसी व विधत्ताम्। विहरतु विदितार्थो निर्विकल्पे समाधौ, ननु भजनविधौ वा तुल्यमेतद्द्वयं स्यात्।।
- ↑ लीनता हरिपादाब्जे मुक्तिरित्यभिधीयते।
- ↑ तुलना कीजिए, मज्झिमनिकायः यो मां पस्सति स धम्मं पस्सति। जो मुझे देखता है, वह धर्म को देखता है।
- ↑ .स्वधर्मकर्मविमुखाः कृष्णकृष्णेतिवादिनः।ते हरेद्र्वेषिणो मूढाः धर्मार्थ जन्म यद्धरेः।। -विष्णुपुराण। साथ ही देखिए भगवद्गीता, 9, 30; तुलना कीजिए;। जाॅन 2, 9-11; 4 18-20; तुलना कीजिएः “वह हर कोई, जो ईसा-ईसा पुकारता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं पाएगा; अपितु वह पाएगा, जो परमपिता की इच्छा के अनुसार काम करता है।”
- ↑ भागवत में कहा गया है कि “भगवान् वासुदेव के प्रति की गई भक्ति शीघ्र ही अकामता और ज्ञान को उत्पन्न कर देती है, जिसके द्वारा भगवान् का दर्शन प्राप्त होता है।”
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्ब्रह्मदर्शनम्।।
विमलमतिर्विमत्सरः प्रशान्तः सुचरितोऽखिलसत्वमित्रभूतः। प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो वसति सदा हृदि यस्य वासुदेवः।।