भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 60

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13.वास्तविक लक्ष्य[१]

गीता उस आत्मिक जीवन की एकता पर बल देती है, जिसे दार्शनिक ज्ञान, भक्तिपूर्ण प्रेम या परिश्रम पूर्ण कर्म के रूप में नहीं बांटा जा सकता। कर्म, ज्ञान और भक्ति एक-दूसरे के पूरक हैं, तब भी जब कि हम लक्ष्य की खोज कर रहे होते हैं और लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद भी। यद्यपिह म एक ही पद्धति पर नहीं चल रहे होते, फिर भी जिस वस्तु की हम खोज कर रहे होते हैं, वह एक ही है। हम पर्वत के शिखर पर भले ही अलग-अलग मार्गों से चढें, परन्तु चोटी पर से दिखाई पड़ने वाला दृश्य सबके लिए एक जैसा होगा। ज्ञान की एक सशरीर व्यक्ति के रूप में कल्पना की गई है, जिसका शरीर जो जानकारी है और जिसका हृदय प्रेम है। योग, जिसकी विभिन्न अवस्थाएं ज्ञान और ध्यान, प्रेम और सेवा हैं, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले जाने वाला प्राचीन मार्ग है।
लोकातीतता का लक्ष्य ब्रह्म लोक तक पहुंचने के रूप में या ब्रह्मभाव या ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने के रूप में प्रकट किया गया है। इसका एक पक्ष है संसार से पृथक् हो जाना (कैवल्य)। गीता में इन सभी दृष्टिकोणों का उल्लेख है। अनेक स्थानों पर ऐसा सुझाव दिया गया है कि मुक्ति की दशा में द्वैत लुप्त हो जाता है और मुक्त आत्मा सनातन आत्मा के साथ मिलकर एक हो जाती है। यह ऐसी दशा है, जो सब गुणों और विशेषताओं से परे है, दुःखरहित है, स्वतन्त्र और शान्तिमय है। यदि शरीर हमारे साथ चिपटा रहेगा, तो प्रकृति तब तक कार्य करती रहेगी, जब तक कि शरीर उतारी हुई केंचुली की भांति अलग नहीं कर दिया जाता। जीवन्मुक्त या स्वतन्त्र हुई आत्मा शरीर में रहते हुए भी बाह्य संसार की घटनाओं के प्रति क्रिया तो करती है, परन्तु वह उनमें उलझती नहीं। इस दृष्टिकोणके अनुसार, आत्मा और शरीर दो पृथक् वस्तुएं हैं, जिनका द्वैत मिट नहीं सकता और हम ऐसे किसी कर्म के विषय में सोच भी नहीं सकते, जो मुक्त आत्मा द्वारा किया गया हो।
गीता में मुख्य रूप से इस प्रकार के दृष्टिकोण पर जोर नहीं दिया गया। गीता की दृष्टि में आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की दशा हमारी सम्पूर्ण प्रकृति को अमर विधान और परमात्मा की शक्ति में रूपान्तरित कर देने में निहित है। परमात्मा के साथ समानता (साधर्म्‍य) पर जोर दिया गया है, एकरूपता या तादात्म्य ( सायुज्य) पर नहीं। मुक्त आत्मा दिव्य ज्ञान से स्फूर्ति प्राप्त करती है और दिव्य संकल्प से उसे गति मिलती है। वह ब्रह्मभाव की स्थिति प्राप्त कर लेती है। उसकी शुद्ध प्रकृति ब्रह्मतत्व में घुल-मिल जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूर्णता का लक्ष्य सर्वोच्च को (3,19), मुक्ति को (3,31;4,15) शाश्वत स्थिति को (18,56) उस मार्ग को जिससे कोई वापस नहीं लौटता (5,17)पूर्णता को (12,10) परम शान्ति को (4,39) परमात्मा में प्रवेश को (4,9,10 और 24), परमात्मा के साथ संयोग को (6,28), ब्रह्म में विश्राम को (2,72), ब्रह्मभाव की प्राप्ति को (14,26) और ब्रह्म में रूपान्तरण को (5,24) बताया गया है।

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