भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 64
अर्जुन की दुविधा और विषाद
गीता की शिक्षा वह रहस्यवाद नहीं है, जिसका सम्बन्ध मनुष्य के केवल आन्तरिक अस्तित्व से होता है। जीवन के कत्र्तव्यों और सम्बन्धों को मिथ्या मानकर उन्हें त्याग देने के बजाय यह उन्हें आत्मिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए सुअवसर के रूप में स्वीकार करती है। जीवन हमें इसलिए मिला है कि हम इसे पूर्णतया रूपान्तरित कर सकें। रणभूमि को धर्मक्षेत्र या धर्म की भूमि इसलिए कहा गया है, क्योंकि ईश्वर, जो धर्म का रक्षक है, इसमें सक्रिय रूप से उपस्थित है।
कुरुक्षेत्रे: कुरुओं के क्षेत्र में । कुरुक्षेत्र कुरुओं की भूमि है। कुरु उस काल का एक प्रमुख गोत्र था।[१]
’धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ शब्दों से मृत्यु द्वारा जीवन का नियम ध्वनित होता है। भयंकर भगवान् उस रूप का एक पक्ष है, जो अर्जुन को युद्धक्षेत्र में दिखाई पड़ता है। जीवन एक संग्राम है, आत्मा का बुराई के विरूद्ध युद्ध। सृजन की प्रक्रिया दो परस्पर-विरोधी तत्वों में, जो एक-दूसरे के विरुद्ध खडे़ होते हैं, निरन्तर तनाव की प्रक्रिया है। उन दोनों के पारस्परिक विरोध से विकास आगे बढ़ता है और सृष्टि के प्रयोजन में प्रगति होती है। इस संसार में अपूर्णता, बुराई और अविवेक के तत्व हैं और हमें कर्म द्वारा, धर्म द्वारा इस संसार को बदलना है।इन तत्वों को, जो अभी तर्कबुद्धि के लिए अपारदर्शक हैं, विचार के लिए पारदर्शक बनाना हैं युद्ध एक प्रतिशोधात्मक निर्णय है और साथ ही साथ एक अनुशासन का कार्य भी। कुरुक्षेत्र को तपःक्षेत्र, तप का या अनुशासन का क्षेत्र भी कहा जाता है।[२]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह हस्तिनापुर, आजकल की दिल्ली के पास एक विशाल मैदान है। जब कुरुओं के अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अपना सिंहासन अपने सबसे बड़े पुत्र दुर्योधन को न देकर युधिष्ठिर को, जिसे धर्मराज, पुण्य का अवतार भी कहा जाता है, देने का निश्चय किया, तब दुर्योधन ने कौशल और छल से राजसिंहासन हथिया लिया और युधिष्ठिर तथा उसके चार भाइयों को समाप्त करने का प्रयत्न किया। यादव जाति के नेता कृष्ण ने कौरवों और पाण्डवों में, जो रिश्ते में भाई थे, समझौता कराने की कोशिश की। जब सब प्रयत्न विफल रहे, तब कौरवों और पाण्डवों में भ्रातृघाती युद्ध अनिवार्य हो गया। कृष्ण ने प्रस्ताव रखा कि वह और उनकी सेना दोनों अलग-अलग पक्षों में रहेंगे। किस पक्ष में कृष्ण रहें और किसमें उनकी सेना, यह चुनाव उन्होंने दोनों पक्षों पर छोड़ दिया। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना को चुना और कृष्ण स्वयं पाण्डवों के पक्ष में हो गए और अर्जुन के सारथी बने। महाभारत, उद्योग पर्व, अध्याय 6, श्लोक 1471 ओल्ड टैस्टामेंट में भी कहा गया है, ’’ पाण्डव और कौरव दो माहन गतियों, ऊध्र्वमुखी और अधोमुखी, दैवी और आसुरी, धर्म जो हमारे आत्मिक विकास में हमारी सहायता करता है और अधर्म, जो हमें माया में उलझाकर नीचे और नीचे घसीटता जाता है, के बीच विरोध के प्रतीक हैं। यह नहीं कि दोनों में परस्पर मेल न हो सकता हो, क्यों कि वस्तुतः दोनों का उद्गम स्थान एक ही है। पाण्डवों और कौरव रिश्ते में भाई थे और एक ही पूर्वजों के वंशज थे।
- ↑ देखिए मनु, 2,19, और 20