भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 73
अर्जुन की दुविधा और विषाद
32.नकाड्क्षेविजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।
हे कृष्ण, मुझे विजय नहीं चाहिए और न राज्य चाहिए और न सुख ही चाहिए। हमें राज्य से, सुख-भोग से, यहां तक कि जीवित रहकर भी क्या करना है? गहरे शोक के क्षणों में हमारी प्रवृत्ति त्याग पद्धाति को अपनाने की ओर होने लगती है। इस श्लोक में संसार के त्याग की ओर अर्जुन का झुकाव सूचित होता है: संन्याससाधनसूचनम्। --मधुसूदन।
33.येषामर्थे काड्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेअवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।।
जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते थे, वे लोग तो अपने प्राणों और धन का मोह त्यागकर यहाँ युद्ध में आ खड़े हुए हैं।
34.आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्थता।।
गुरु, पिता, पुत्र और दादा, मामा, श्वसुर, पौत्र और साले तथा अन्य सम्बन्धी (यहां खडे़ हैं)।
35.एकान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोअपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्य हेतोः किं नु महीकृते ।।
तीनों लोकों के राज्य के लिए भी, हे कृष्ण, मैं इन्हें मारने को तैयार नहीं हूँ। फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या। भले ही ये लोग मुझे क्यों न मार डालें। तीनों लोकों से अभिप्राय पृथ्वी, स्वर्ग और अन्तरिक्ष की वैदिक धारणा से है।
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