भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-105
भागवत धर्म मिमांसा
4. बुद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक
(11.8) एवं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने।
दर्शन-स्पर्शन-घ्राण-भोजन-श्रवणादिषु।।[१]
भगवान् ज्ञानी का वर्णन कर रहे हैं : ज्ञानी क्या नहीं करता? ज्ञानी सोता है, बैठता है, घूमता है, सुनता है, देखता है, भोजन करता है, श्रवण करता है। वह सब कुछ करता है, फिर भी विरक्त रहता है। वह भोजन करेगा, भूखा नहीं रहेगा, लेकिन उससे विरक्त रहेगा।
(11.9) न तथा बध्यते विद्वान् तत्र तत्रादयन् गुणान्।
प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः।।[२]
वह गुणों का स्वीकार करेगा। तत्र तत्रादयन् गुणान् –इन्द्रियों के जो गुण हैं, वे भी लेगा, लेकिन उनसे बँध नहीं जाएगा, क्योंकि वह उनमें आसक्त नहीं रहता। ठंड लग रही हो, तो फेंक देगा – इस तरह अनासक्त रहेगा। आजकल तो लोग गरमी में भी कुरता पहने रहते हैं। कुरता न पहनेंगे, तो वह सभ्यता का लक्षण नहीं माना जाएगा। बाबा को जब गरमी महसूस होती है, तो वह ऊपर की चादर फेंक देता है। तो, अब यह तय करना होगा कि देह को कुरते की तरह धारण करना है या बाबा की चादर की तरह? कुरते की तरह धारण करेंगे तो गरमी होते हुए भी उसे पहनना होगा। होना तो यह चाहिए कि शरीर फट गया, तो उतारकर रख दिया। इसी का नाम है मरण। इतनी सरल चीज है, यह! यदि कोई मनुष्य मरता है, तो रोने-चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं। ज्ञानी ऐसी विरक्ति से सारी क्रियाएँ करता है। प्रवृत्ति में रहते हुए भी वह उसमें आसक्त नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं कि शराब पी लें और उससे अलग हो जाएँ। शराब पीना कोई कर्तव्य नहीं। यदि कुछ खाने-पीने की जरूरत हो और उसे वह कर्तव्य समझता हो, तो खा-पी सकता है, बैठ सकता है। मतलब यह कि आवश्यक या योग्य काम करता हुआ यह अनासक्त रहता है। इन्द्रियों से विषय-सेवन करते हुए भी अनासक्त! भोजन करते समय पेट में कुछ डालना शरीर के लिए आवश्यक है, यह खयाल रखकर वह भोजन करेगा। इसलिए उसके हाथ में कुञ्जी है। कितना खोलना, यह तय करके वह उतना ही खोलता है और बाकी बन्द रखता है। इसके लिए गीता में कछुए की उपमा दी गयी है। जहाँ धोखा होता है, वहाँ वह अपनी सारी इन्द्रियाँ अन्दर खींच लेता है। जब सुरक्षितता महसूस होती है, तो बाहर निकालता है। इन्द्रियों को कब खोला जाए और कब बन्द किया जाए, यह तय करके ही ज्ञानी कोई काम करता है। यानी विद्वान् विषयों का ग्रहण करते हुए भी उनका असर अपने पर नहीं होने देता, उनसे बँध नहीं जाता। वह आदयन् गुणान् –गुण लेता है, लेकिन उनका भी परिणाम होने नहीं देता। वायु, सूर्यनारायण और आकाश, ये जो तीन उपमाएँ दीं, उनमें तीन अवस्थाएँ हैं। सूर्य आपके व्यवहार से अत्यन्त ऊँचा है। सूर्य को आप छू नहीं सकते, पर वह ऊँची जगह रहकर भी आपकी मदद कर पाता है। वह आपके व्यवहार में शामिल नहीं। आकाश आपके व्यवहार में शामिल नहीं, पर आपके व्यवहार में ओत-प्रोत, भरा हुआ है। आपके सभी व्यवहारों में शामिल है। फिर भी आप उसे लेप नहीं लगा सकते। दीवार को आप रंग लगा सकते हैं, पर आकाश आपके आसपास छाया होने पर भी आप उसे रंग नहीं सकते। पवन कैसा है? बाबा की यात्रा ही समझो। मात्र एक दिन का सम्बन्ध! आज एक जगह, तो कल दूसरी जगह। जहाँ जाएगा, वहाँ लोगों की कुछ मदद करेगा और लोगों से मदद भी लेगा। लोग बाबा को खिलाएँगे-पिलाएँगे और वह लोगों के मसले हल करने में मदद करेगा। दूसरे दिन आगे बढ़ेगा। इसी तरह पवन भी परिव्राजक है। वह कहीं नहीं चिपकता। ये तीन प्रकार के ज्ञानी हुए। अब आप सोचिये कि इन तीनों में सबसे कठिन स्थिति किसकी है? देखने में तो पवन का काम आसान दीखता है और आकाश का कठिन। यदि आकाश के समान बनना चाहें, तो आपको बिलकुल शून्य बनना होगा। आकाश शून्य है। शून्य बनना कठिन मामला है। सूर्य का काम भी आसान दीखता है। वह ऊँचा रहता है और स्वंय कुछ नहीं करता। हमें लगता है कि वह प्रकाश देता है, लेकिन वह प्रकाश नहीं देता, हमें उससे प्रकाश मिलता है। ‘मैं हूँ’ इसके अलावा और कुछ वह जानता ही नहीं। लेकिन उसका ज्ञान इतना प्रखर है कि उसके द्वारा वह सबके पास पहुँचता है। पवन में सेवा-वृत्ति है। वह सेवा करता और भाग जाता है। सूर्य में ज्ञान-प्रखरता है। वह अत्यन्त प्रखर है। वह यदि आपकी सेवा करने के लिए आपके घर आये, तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे? इसी तरह अत्यन्त प्रखर ज्ञानी यदि दुनिया में प्रकट हों, तो दुनिया जल जाएगी। इसलिए वे दूर रहकर ही मदद करत हैं। आकाश शून्य है। आकाश में निरहंकारता का लक्षण है। पवन में अल्पित सेवा का लक्षण है, तो सूर्य में प्रखर ज्ञान का लक्षण। इनमें से यदि किसी एक को चुनना हो तो वह मुश्किल होगा, क्योंकि सबकी सब अवस्थाएँ कठिन हैं, सरलता से प्राप्त होनेवाली नहीं। लेकिन कठिन काम करने के लिए ही तो मानव-जन्म है! मुक्त पुरुष को लीला भगवान् समझा रहे हैं :
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-