भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-11
3. भक्त लक्षण
9. त्रिभुवन-विभव-हेतवेऽप्यकुंठ
स्मृतिरजितात्म-सुरादिभिर् विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविंदात्
लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्यः।।
अर्थः
त्रिभुवन के वैभव के लिए भी जिसके हरि स्मरण में व्यवधान नहीं पड़ता और भगवन्मय बने देवादिकों को भी शोध्य उन भगवान् के चरण-कमलों से जो आधा पल भी दूर नहीं होता, वह वैष्णवों में अग्रगण्य है।
10. भगवत उरु-विक्रमांघ्रिशाखा
नख-मणि-चंद्रिकया निरस्त-तापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चंद्र इवोदितेऽर्कतापः।।
अर्थः
जैसे चंद्रोदय होने पर सूर्य का ताप नष्ट हो जाता है, वैसे ही भगवान् के महापराक्रमी चरणों की उँगलियों के नखरूपी रत्नों की चंद्रिका से भक्तों के हृदय का ताप मिट जाता है। फिर वह पुनः उत्पन्न कैसे होगा?
11. विसृजति हृदयं न यस्य साक्षात्
हरिरवशाभिहितोऽप्यधौध-नाशः।
प्रणय-रशनया घृतांध्रि-पद्यः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः।।
अर्थः
अवश होकर नाम लेने पर भी पाप-प्रवाह का नाशक करने वाले साक्षात् हरि, प्रेम की डोरी से चरण-कमल बँध जाने के कारण, जिस भक्त के हृदय को नहीं छोड़ते, वह भागवतों में प्रमुख हैं, ऐसा कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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