भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-126
भागवत धर्म मिमांसा
7. वेद-तात्पर्य
(21.2) परोक्षवादो वेदोऽयं बालानां अनुशासनम् ।
कर्म-मोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ।।[१]
अब वेद की दूसरी बात! वेद परोक्ष बोलता है, सीधा नहीं। ‘तू अमुक काम कर’ ऐसा नहीं करता, ‘अमुक काम करना अच्छा है’ ऐसा कहता है, यानी पर्याप्त से बोलता है। मतलब यह कि वेद बहुत नम्रता से बोलता है। एक मिसाल देता हूँ – एक था ज्योतिषी। एक भाई उसके पास जाकर अपना भविष्य पूछने लगे। ज्योतिषी ने कहा : ‘आपके सारे रिश्तेदार आपके जीते-जी मर जायेंगे।’ वे भाई एकदम नाराज हो गये। उसके बाद वे दूसरे ज्योतिषी से पूछने गये। उसने उन्हें बतलाया : ‘आप बहुत दीर्घायु हैं।’ तो वे खुश होकर चले आये। वास्तव में दोनों ज्योतिषियों ने एक ही बात कही, पर दूसरे न अभद्रवचन नहीं सुनाये। बात वही, लेकिन दूसरे ढंग से सामने रखी। वैसे ही वेद हमेशा प्रत्यक्ष नहीं, परोक्षवाद से बोलता है। दूसरे को चुभे, ऐसी भाषा नहीं बोलता। इसीलिए वेद-वचनों का अर्थ करना कठिन होता है। बच्चे को सिखाना है, तो उसकी रुचि देखकर, उसके मन के अनुसार प्रेमपूर्वक सिखाना पड़ता है। वैसे ही वेद सूचक शब्दों में यानी परोक्ष-पद्धति से बोलता है। वेद हमें बच्चा मानता है। बच्चों को क्या हजम होगा, यह देखकर उपदेश देता है। जैसे गाय घास खाती है और बच्चों को दूध देती है, वैसे ही वेद स्वयं घास खाकर हम बच्चों को दूध देता है। लोग कहते हैं कि ‘वेद कर्मकाण्ड कहता है।’ किन्तु वेद जो कर्म करने के लिए कहता भी है, वह कर्म से छूटने के लिए। कर्म से छुटकारा पाना चाहते हो, तो खूब कर्म करो। इसमें एक मिसाल दी है : अगदं यथा – जैसे औषध। कर्म का विधान वेद करता है, कर्म से छूटने के लिए। कैसे? तो औषद के समान। होमियोपैथी क्या करती है? बुखार छुड़ाने के लिए बुखार बढ़ाने की दवा देती है। आप सिर का दर्द दूर करना चाहते हो, तो होमियोपैथी की दवा से प्रथम सिर खूब दुखेगा, बाद में धीरे-धीरे शान्त होगा। आर्युवेद में समं समेन, विषमं विषमेन कहा है। पर एलोपैथी बीमारी के विरोध में दवा देती है। जो बीमारी हुई हो, उसी की दवा देती है होमियोपैथी। रोग-मुक्ति के लिए होमियोपैथी दवा प्रथम रोग बढ़ाती है। वैसे ही वेद कर्म से छुड़ाने के निमित्त कर्म बढ़ाने के लिए कहता है। उपनिषद् एलोपैथी की दवा बताती है। कर्म से मुक्ति पाने के लिए कर्म कम करने के लिए कहती है। वेद की पद्धति इससे उलटी है। यह वेद की अपनी कुशलता है। लोग यह बात समझते नहीं और यों ही वेद को कर्मकाण्डी बताते हैं। अधिक कर्म करके कर्म से मुक्ति कैसे पायेंगे, यह एक प्रक्रिया है। उसकी उपपत्ति भगवान् आगे समझा रहे हैं :
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.3.44
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